धारा 377 : इस क़ानूनी लड़ाई की अब तक की यात्रा इस तरह से रही है

LiveLaw News Network

10 July 2018 11:59 AM GMT

  • धारा 377 : इस क़ानूनी लड़ाई की अब तक की यात्रा इस तरह से रही है

    आईपीसी की धारा 377 को लेकर क़ानूनी लड़ाई काफी लम्बी रही है। एलजीबीटीक्यू समुदाय के अधिकारों की इस लड़ाई की यात्रा के मुख्य  पड़ाव इस तरह से रहे हैं :

     1991: इनके लिए लड़ाई की शुरुआत एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन ने 1991 में शुरू किया। इस संस्था ने अपने प्रकाशन,लेस दैन गे : सिटीजन्स रिपोर्ट  ने धारा 377 के साथ मुश्किलों के बारे में लिखा और कहा कि इसे समाप्त किया जाना चाहिए। इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली में विमल बालासुब्रमन्यम ने “गे राइट्स इन इंडिया” नामक अपने आलेख में इसके शुरुआती इतिहास के बारे में लिखा।

     2001: एनजीओ नाज़ फाउंडेशन ने दिल्ली हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की और 377 की संवैधानिकता को चुनौती दी।

    इस एनजीओ ने कहा था कि ये प्रावधान निजी रूप से दो वयस्कों के बीच यौन कार्यों को अवैध बताता है जो कि संविधान के अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15, 19 और 21 के संबंधित प्रावधानों का उल्लंघन है।

    2004: दिल्ली हाई कोर्ट ने याचिका ख़ारिज कर दी। 

    अप्रैल 2006: सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश के खिलाफ नाज़ फाउंडेशन की याचिका स्वीकार कर लिया और मामले पर दुबारा हाईकोर्ट को गौर करने को कहा।

    जुलाई 2009: दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि दो वयस्कों के बीच सहमतिपूर्ण यौन संबंध अपराध नहीं है और इसके प्रावधान अनुच्छेद 21 के विभिन्न प्रावधानों का उल्लंघन करता है जिसमें निजता और स्वतंत्रता का अधिकार भी शामिल है।

    कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि 377 के प्रावधान अनुच्छेद 14, 15 और 21 के प्रावधानों का उल्लंघन करे हैं, विशेषकर उन पुरुष वयस्कों के जो किसी पुरुष के साथ यौन संबंध स्थापित करते हैं।

    दिसंबर  2013: सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की पीठ ने सुरेशकुमार कौशल एवं अन्य बनाम नाज़ फाउंडेशन एवं अन्य मामले में हाईकोर्ट के फैसले को उलटते हुए धारा 377 के प्रावधानों को सही बताया। जजों ने कहा कि मौलिक अधिकारों के कथित उल्लंघन और लैंगिक भेदभाव को पिछले मामलों से अलग नहीं किया जा सकता।

    जून  2016: सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की पीठ ने कुछ प्रमुख लोगों की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को इस मामले की सुनवाई एक लिए एक संविधान पीठ का गठन किया जा सकता है या नहीं।

    अगस्त 2017: सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है और किसी का सेक्सुअल ओरिएंटेशन उसकी पहचान का अहम हिस्सा है। इसके बारे में विस्तार से आप यहाँ पढ़ सकते हैं : Privacy Judgment: A Salvo In The Fight Against Discrimination Against The LGBTQ Community in India 

    जनवरी 2018: सुप्रीम कोर्ट ने सुरेश कुमार कौशल के मामले पर गौर करने को राजी गो गया कि एलजीबीटी नागरिकों के मुद्दों पर गौर करने के लिए बड़ी पीठ का गठन किया जाए।  सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में संविधान पीठ को सौंपते हुए कहा कि यह धारा किसी व्यक्ति के चुनाव और उसके सेक्सुअल ओरिएंटेशन को नकारता है।

    जुलाई 10: मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन और न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा की संविधान पीठ ने इस मामले की सुनवाई शुरू की। इस मामले को लेकर कोर्ट के पास कुल छह याचिकाएं हैं।

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