कोर्ट में पेश लिखित बयान में संशोधन की अनुमति दी जाए या नहीं यह इस बात पर निर्भर नहीं करता कि प्रस्तावित केस सुनवाई के दौरान टिक पाएगा या नहीं : सुप्रीम कोर्ट

LiveLaw News Network

25 Dec 2017 11:49 AM GMT

  • कोर्ट में पेश लिखित बयान में संशोधन की अनुमति दी जाए या नहीं यह इस बात पर निर्भर नहीं करता कि प्रस्तावित केस सुनवाई के दौरान टिक पाएगा या नहीं : सुप्रीम कोर्ट

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि बहस के संशोधन पर मिले आवेदन पर विचार के दौरान दृढ़ता से कही गई बात को जांचने की जरूरत नहीं है। कोर्ट ने कहा कि संशोधन की अनुमति दी जाए या नहीं यह इस बात निर्भर नहीं करता कि जिस केस को निर्धारित करने की बात की जा रही है वह अंततः सुनवाई के दौरान टिकेगा या नहीं।

    मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति एएम खानविल्कर और न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने एक याचिका पर सुनवाई के दौरान यह मत व्यक्त किया। लिखित बयान के संशोधन की अनुमति देने के सुनवाई अदालत के फैसले को हाई कोर्ट द्वारा खारिज कर देने के बाद यह याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी।

    यह मामला एक कब्जे को हासिल करने के लिए चल रहे विवाद पर सुनवाई के दौरान उठा। इस मामले के सभी पक्षकार परिवार के सदस्य हैं और मुद्दई ने कब्जे की मांग इस आधार पर की थी कि उसकी माँ ने उसे यह उपहार में देने का करारनामा किया था। मुद्दालह जो कि मुद्दई का सहोदर है, ने एक लिखित बयान पेश किया जिसमें उसने कहा कि यह परिसंपत्ति अविभाजित संयुक्त परिवार की परिसंपत्ति थी और इस करारनामे के बावजूद इस पर सभी का अधिकार है। यह मूल लिखित बयान 2003 में दायर किया गया था जबकि 2016 में इसमें यह बात जोड़ने की अनुमति दी गई थी कि यह परिसंपत्ति अविभाजित परिवार की है।

    सुनवाई अदालत ने इसमें संशोधन की अनुमति दे दी थी। मुद्दई ने इस संशोधन को हाई कोर्ट में संविधान की धारा 227 के तहत चुनौती दी। हाई कोर्ट ने मूल बयान दाखिल करने के 13 साल बाद इसमें संशोधन किए जाने पर शक जाहिर किया। हाई कोर्ट ने कहा कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के बन जाने के बाद यह एक स्थापित सिद्धांत है कि पैतृक संपत्ति अगर किसी व्यक्ति को दे दी जाती है तो वह बाद में हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति नहीं रह जाती है। इस उत्तराधिकार को स्वतः अर्जित परिसंपत्ति माना जाता है बशर्ते कि परिसंपत्ति को किसी को देने के समय परिवार एक अविभाजित हिंदू परिवार रहा हो। हाई कोर्ट के विचार में याचिकाकर्ता ने जो संशोधन की अनुमति माँगी उससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि सहदायिकी परिसंपत्ति का अस्तित्व था। हाई कोर्ट ने इसलिए कहा कि इस संशोधन की अनुमति नहीं दी जा सकती और उसने सुनवाई अदालत के इस आदेश को खारिज कर दिया।

    मूल लिखित बयान में कही गई बातों और संशोधित बयान की तुलना करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मुद्दालह संशोधन द्वारा कोई नया केस निर्धारित नहीं करने जा रहा है। कोर्ट ने कहा कि जो बातें जोड़ी गई हैं वह उसमें निहित बातों का ही विस्तार है। मूल लिखित बयान में मुद्दालह ने यह कहा था कि परिसंपत्ति अविभाजित सहदायिकी परिसंपत्ति का हिस्सा है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि हाई कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत अपने न्यायाधिकार का प्रयोग करते हुए मामले की योग्यता पर विचार किया। अपीलकर्ता संशोधन में इस मामले को स्थापित करना चाहता था पर इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती। यह भी कहा गया कि अनुच्छेद 227 के तहत मामले की योग्यता का आकलन करके हाई कोर्ट निगरानी संबंधी अपने क्षेत्राधिकार के बाहर गया।

    कोर्ट ने कहा, “...साधना बनाम नेशनल इंश्योरेंस कंपनी (2003) 3 एससीसी 524 मामले में, इस अदालत ने कहा था कि अनुच्छेद 227 हाई कोर्ट को सिर्फ यह देखना है कि निचली अदालत ने अपने अधिकारक्षेत्र में रहते हुए अपना काम किया है या नहीं। इस अनुच्छेद के तहत हाई कोर्ट अपीली अदालत या ट्रिब्यूनल की तरह व्यवहार नहीं कर सकता और उसे निचली अदालत ने किस आधार पर फैसला दिया है उसके साक्ष्य की समीक्षा या पुनर्मूल्यांकन की जरूरत नहीं होती। सुनवाई अदालत ने सीपीसी के आदेश 6 के नियम 17 के तहत लिखित बयान के संशोधन की अनुमति दी। हाई कोर्ट को अनुच्छेद 227 के तहत इसमें दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए थी। 

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