सुप्रीम कोर्ट ने सत्र अदालत को जमानत देने के राजस्थान हाई कोर्ट के आदेश को रद्द किया; कहा, कोई बड़ी अदालत छोटी अदालत को आदेश पास करने को नहीं कह सकता [निर्णय पढ़ें]

LiveLaw News Network

15 Dec 2017 5:19 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट ने सत्र अदालत को जमानत देने के राजस्थान हाई कोर्ट के आदेश को रद्द किया; कहा, कोई बड़ी अदालत छोटी अदालत को आदेश पास करने को नहीं कह सकता [निर्णय पढ़ें]

    सुप्रीम कोर्ट ने वृहस्पतिवार को कहा कि कोई भी ऊंची अदालत किसी निचली अदालत को किसी पक्ष द्वारा दायर याचिका पर कोई विशेष फैसला/आदेश देने को नहीं कह सकता। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी अदालत की न्यायिक स्वतंत्रता में कोई कोर्ट, यहाँ तक की ऊंची अदालत भी दखल नहीं दे सकता।

    न्यायमूर्ति आरके अग्रवाल और न्यायमूर्ति अभय मनोहर सप्रे ने राजस्थान हाई कोर्ट के आदेश को निरस्त करते हुए उक्त बातें कही। इस आदेश में हाई कोर्ट के एकल जज ने एक अवयस्क को अगवा कर रेप करने के कथित मामले में पुनरीक्षण चाहने वालों से सत्र न्यायालय में नियमित जमानत के लिए पेश होने को कहा और यहाँ तक कि सत्र अदालत को उसी दिन उन लोगों को जमानत दे देने का आदेश दिया।

    “किसी मामले में फैसला सुनाने को लेकर हर अदालत को न्यायिक स्वतंत्रता मिली हुई है यह एक स्थापित तथ्य है। ऊंची अदालत सहित कोई भी अदालत इसमें दखल नहीं दे सकता।”

    सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर गौर करते हुए कहा, “यहाँ तक कि निचली अदालत को कोई मामला सौंपने पर भी ऊंची अदालत निचली अदालत को जमानत ‘देने’ या ‘नहीं देने’ का निर्देश नहीं दे सकता। अगर इस तरह का कोई निर्देश जारी होता है तो इसका मतलब होगा उस कोर्ट के अधिकार को हथियाना और यह निचली अदालत के स्वनिर्णय के अधिकार में हस्तक्षेप होगा। इस तरह के आदेश, इसलिए, कानूनी रूप से टिक नहीं सकते। कोर्ट ने हाई कोर्ट के आदेश के उस हिस्से को निरस्त कर दिया जिसमें उसने सत्र अदालत को जमानत देने का आदेश दिया था।

    न्यायमूर्ति सप्रे ने कहा, “दोनों ही मामलों – जमानत देने या इसे देने से मना करने में, सत्र न्यायाधीश को अपने स्वतंत्र न्यायिक विचार का प्रयोग करने और मामले के तथ्यों को ध्यान में रखते हुए जमानत देने या उससे इनकार करने पर लागू होने वाले वैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप फैसला देना होता है। इस मामले में, एकल जज इस वैधानिक सिद्धांत को अपने ध्यान में रखने में चूक गया।”

    सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश राजस्थान हाई कोर्ट के अप्रैल 28 के उस आदेश के खिलाफ दायर अपील पर दिया है जिसमें हाई कोर्ट ने आशीष मीणा और विमल मीणा नामक दो लोगों के खिलाफ सत्र अदालत द्वारा जारी गैर जमानती वारंट को निरस्त कर दिया था।

    यह मामला 2014 में मदन मोहन द्वारा दायर एक एफआईआर से जुड़ा है। मदन मोहन ने ही सुप्रीम कोर्ट में अपील भी दायर की है।

    दो आरोपी विमलेश कुमार और जनक सिंह आईपीसी की धारा 120(B), 363, 366, 368, 370(4) और 376 (पीओसीएसओ अधिनियम की धारा 3/4 और 16/17 के साथ इसे पढ़ें) के तहत मामले दायर किए गए थे। यह मामला सवाई माधोपुर के जिला और सत्र न्यायाधीश के पास लंबित है।

    मदन मोहन ने सत्र न्यायालय में आईपीसी की धारा 193 के तहत एक शिकायत दायर की थी। उसने शिकायत की थी कि यद्यपि आशीष मीणा और विमल मीणा का नाम चार्जशीट के साथ दाखिल अन्य सभी दस्तावेजों में प्रमुखता से शामिल है, पर चार्जशीट से उनके नाम गायब थे जबकि विमलेश और जनक सिंह के नाम उसमें बचे रहे जिन पर मुकदमा चला।

    उन्होंने अपील की कि आशीष और विमल पर भी मुकदमा चलाया जाए।

    सत्र न्यायाधीश ने 19 नवंबर 2016 को उसके आवेदन पर कार्रवाई करते हुए आशीष और विमल को गिरफ्तार करने के लिए उनके खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी किया।

    आशीष और विमल ने राजस्थान हाई कोर्ट में आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर की पर मदन मोहन को एक पक्षकार के रूप में अभियोजित किया गया।

    उनकी पुनरीक्षण याचिका पर सुनवाई करते हुए हाई कोर्ट ने सत्र अदालत के फैसले के उस हिस्से को निरस्त कर दिया जिसमें उनके खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी किया गया था।

    इसके बाद हाई कोर्ट ने आशीष और विमल को निर्देश दिया कि वे सुनवाई अदालत में आत्मसमर्पण कर दें और नियमित जमानत के लिए आवेदन करे और जिस पर अदालत उसी दिन गौर करेगा जिस दिन उसके लिए आवेदन किया जाएगा।

    इस आदेश के खिलाफ मदन मोहन की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “एकल जज ने न्यायिक विचार को तरजीह दिए बिना यह आदेश दिया और ऐसा करते हुए उसने कम से कम दो भारी गलतियां की।”

    कोर्ट ने कहा, “पहला, वह यह नहीं देख पाया कि जिस व्यक्ति की शिकायत पर सेसन जज ने आदेश दिया था और आईपीसी की धारा 193 के तहत उसके आवेदन पर गौर किया था वह राज्य के साथ साथ आपराधिक पुनरीक्षण का एक आवश्यक पक्षकार था। इसलिए पुनरीक्षण में राज्य के साथ साथ उसे प्रतिवादी के रूप में अभियोजित किया जाना चाहिए था।“

    कोर्ट ने कहा कि हाई कोर्ट की दूसरी गलती थी सत्र न्यायाधीश को यह निर्देश देना कि वह आशीष और विमल की जमानत अर्जी पर गौर करे और उसे उसी दिन जमानत दे दे।”

    न्यायमूर्ति सप्रे ने कहा, “हमारे विचार से हाई कोर्ट को यह अधिकार नहीं है कि वह सत्र अदालत को जमानत की अर्जी की अनुमति स्वीकार करने का आदेश दे। निश्चित रूप से एक बार जब इस तरह का निर्देश दे दिया जाता है तब सत्र न्यायाधीश के लिए इसके सिवा करने को क्या बचता है कि वह प्रतिवादी नंबर दो और तीन को हाई कोर्ट के निर्देश के अनुसार जमानत देने की बात मान ले। दूसरे शब्दों में, हाई कोर्ट द्वारा जारी निर्देश को आवश्यक रूप से मानते हुए उसके पास जमानत की अर्जी को स्वीकार करने के अलावा और कोई अधिकार नहीं था।”

    बेंच ने आशीष और विमल दोनों से सुनवाई अदालत में आत्मसमर्पण करने को कहा जो कि उनकी जमानत याचिका पर मामले के गुण-दोष के आधार पर निर्णय करेगा।


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