राजीव गाँधी हत्याकांड के कुछ सवाल जिनके उत्तर आज तक नहीं मिल पाए हैं

LiveLaw News Network

24 Nov 2017 4:03 AM GMT

  • राजीव गाँधी हत्याकांड के कुछ सवाल जिनके उत्तर आज तक नहीं मिल पाए हैं

    मैं न्यायमूर्ति डीपी वाधवा और न्यायमूर्ति सैयद शाह मोहम्मद कादरी के साथ सुप्रीम कोर्ट की उस तीन-सदस्यीय पीठ में शामिल था जो राजीव गाँधी हत्या के मामले में अपील की सुनवाई कर रहा था। एलटीटीई (लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम) के 26 सदस्यों पर पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या करने का आरोप था और जांच एजेंसियों ने उन्हें दोषी पाया था और सुनवाई अदालत ने उन्हें मौत की सजा सुनाई थी। जिस अपील की हम सुनवाई कर रहे थे वह सजा पाए अभियुक्तों ने दाखिल किया था और उन्होंने सुनवाई अदालत के फैसले को चुनौती दी थी। हमने इनमें से सात को दोषी पाया और शेष को बरी कर दिया। इन सात में से चार की मौत की सजा बरकरार रखी गई जबकि तीन की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया। यह फैसला बहुमत से नहीं था क्योंकि जजों में मतभेद था। मेरा मानना था कि महिला अभियुक्त नलिनी को मौत की बजाय आजीवन कारावास की सजा दी जानी चाहिए थी। और उसके बारे में अपने फैसले में मैंने यही लिखा था।

    “उसकी एक बेटी है और उसे अपनी माँ की गोद क्या होती है यह भी नहीं पता क्योंकि वह जेल में पैदा हुई थी। यह कहावत “न्याय न तो बाप को मानता है और न माँ को” एक प्राचीन सिद्धांत है। लेकिन सजा के निर्धारण में इसको बहुत ही सख्ती से लागू नहीं किया जा सकता। जैसा कि हमने इस छोटी बच्ची के पिता को मिली मौत की सजा को बरकरार रखा है, इसकी माँ को फांसी पर लटकने से बचाने का प्रयास इस सिद्धांत के खिलाफ नहीं जाएगा और इस बच्चे पर अनाथपन को थोपे जाने से बचा जा सकेगा।”

    पीठ के अन्य जज इसके खिलाफ थे और बहुमत के फैसले के अनुरूप उसे भी मौत की सजा दे दी गई। बाद में उसकी मौत की सजा को सरकार ने आजीवन कारावास में बदल दिया। कुछ साल के बाद अन्य लोगों को भी माफी मिली। ये सभी तमिलनाडु के वेल्लूर जेल में अपना सजा काट रहे हैं।

    इस मामले के साथ साथ ही, केंद्र सरकार ने राजीव गाँधी की हत्या को लेकर न्यायिक जांच गठित की थी। दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जैन की अध्यक्षता में यह आयोग बना। दुर्भाग्य की बात यह रही कि इस आयोग की रिपोर्ट काफी देर से आई।

    राजीव गाँधी की हत्या के लिए जिस ईलम संगठन को उत्तरदाई ठहराया गया वह एलटीटीई था। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी श्रीलंका में भारतीय शान्ति सेना (आईपीकेएफ) को भेजने के लिए जिम्मेदार थे ताकि वह वहाँ की सरकार को तमिल विद्रोहियों को रोकने में मदद कर सके। आईपीकेएफ भारतीय सेना की एक विशेष टुकड़ी थी। एलटीटीई लगातार इस बात की शिकायत कर रही थी कि भारतीय सैनिक तमिल लड़कियों के साथ बलात्कार के साथ साथ अन्य तरह के जुल्म तमिलों पर ढा रहे थे। अगली चुनाव में राजीव गाँधी चुनाव हार गए और वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री बने। उन्होंने श्रीलंका से शांति सेना को वापस बुला लिया।

    एक-दो साल के बाद वीपी सिंह को सता छोड़नी पड़ी और के चंद्रशेखर कांग्रेस के सहयोग से प्रधानमंत्री बने। वे स्वघोषित सन्यासी चंद्रास्वामी के शिष्य थे और वे काफी अमीर थे। उनका संबंध कई अंतरराष्ट्रीय हथियार विक्रेताओं से थे। वे चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनाए जाने का समर्थन कर रहे थे। हालांकि, इसके बाद कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया और चंद्रशेखर को पद छोड़ना पड़ा। राष्ट्रपति ने संसद को भंग कर दिया आम चुनाव की घोषणा कर दी गई। राजीव गाँधी ने कांग्रेस पार्टी के लिए चुनाव प्रचार शुरू कर दिया। जब अमृत बाज़ार पत्रिका के संपादक तुषार कांति घोष ने 12 और 19 अगस्त 1990 को उनका इंटरव्यू लिया तो उसमें उन्होंने श्रीलंका के बारे में अपने विचारों को सार्वजनिक रूप से रखा। श्रीलंका की नीति की जहाँ तक बात है, राजीव गाँधी नहीं चाहते थे कि वहाँ से शांति सेना को वापस बुलाई जाए और श्रीलंका के बारे में वीपी सिंह सरकार की नीति के वे आलोचक थे। कांग्रेस ने जो अपनी चुनावी घोषणापत्र जारी किया उसमें उसने भारत-श्रीलंका के बीच जुलाई 1987 में हुए समझौते का समर्थन किया था और इस समझौते को श्रीलंका में तमिल लोगों की समस्याओं और दोनों देशों के बीच अन्य सभी मामलों को सुलझाने का आधार बताया और श्रीलंका की क्षेत्रीय अखंडता को सुनिश्चित करने की बात कही। इस मौके पर हुए एक जनमत सर्वेक्षण में भविष्यवाणी की गई थी कि राजीव गाँधी चुनाव जीत जाएंगे।

    यह जानने के बाद तमिल टाइगर्स के नेताओं ने राजीव गाँधी को हर तरीके से सत्ता में आने से रोकने की कोशिश करने का निर्णय किया और उनकी हत्या की योजना तैयार की। तमिल टाइगर्स की एक टीम शिवरासन की अध्यक्षता में भारतीय तट पर नाव से अलग अलग गुटों में पहुंचा। कुछ दिनों तक वे तमिलनाडु में कोई हरकत नहीं की। उनके समूह की दो लड़कियाँ धनु एवं सुभा ने मानव बम बनना स्वीकार कर लिया। जब यह पता चला कि राजीव गाँधी मद्रास (अब चेन्नई) से 30-40 किलोमीटर दूर श्रीपेरुम्बुदूर में एक सभा को संबोधित करने वाले हैं, ये एक बम फोड़कर राजीव गाँधी की हत्या की योजना पर गुप्त रूप से काम करने लगे। धनु के शरीर पर एक बम बांधा गया जिसमें एक बैट्री और एक स्विच लगाया गया। धनु ने इस मौके के लिए खरीदे गए ढीला-ढाला सलवार कमीज पहना और उसके शरीर पर बैट्री, स्विच आदि जो भी लगे थे सब इसमें छिप गए।

    राजीव गाँधी जैसे ही सभास्थल पर पहुंचे, धनु रेड कारपेट तक पहुँचने में सफल रही जहाँ पर एक छोटी बच्ची कोकिला अपनी माँ लता कन्नन के साथ मौजूद थी। कोकिला ने राजीव गाँधी पर एक कविता लिखी थी जो वह उनको सुनाना चाहती थीं। राजीव गाँधी छोटी बच्ची कोकिला के पास पहुंचे। या तो उन्हें वह कविता मिल गई थी या मिलने वाली थी। और उसी समय धनु ने बैट्री का स्विच दबा दिया। अचानक भयानक आवाज के साथ बम विस्फोट हो गया। एक सीमा तक जितने लोग मौजूद थे सबके सब मारे गए। पलक झपकते ही पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी और उनके सुरक्षाकर्मियों सहित 18 जिंदगियां मांस के लोथड़े में तब्दील हो गई। अभियोजन पक्ष की ओर से इस मामले की जड़ में यही बात थी।

    यह आकस्मिक ही था कि जांच दल को राजीव गाँधी की हत्या में एलटीटीई के हाथ होने का पता चला। एक शीर्ष पुलिस अधिकारी डीआर कार्तिकेयन के नेतृत्व में लंबी और विस्तृत जांच के बाद 26 अभियुक्तों पर आरोप लगाए गए और उनके खिलाफ मुकदमा शुरू हुआ। पर जब तक पुलिस उनका पता लगा पाती, शिवरासन एवं एलटीटीई के अन्य कार्यकर्ता जो कि उस समय छिपे हुए थे, सायनाइड खाकर अपनी जान दे दी।

    हमें दोनों ही पक्षों की बात पूरी तरह सुननी थी और यह इसलिए नहीं कि 26 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई थी बल्कि उसमें 129 गवाह भी थे, एक हजार से ज्यादा दस्तावेज थे और 26 इकबालिया बयान थे जिनकी जांच करनी थी। न्याय व्यवस्था में अपने पूरे करियर के दौरान मैंने जितने मामलों को निपटाया है उसमें यह सबसे बड़ा मामला था। तत्कालीन अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल आइएम अल्ताफ अहमद अभियोजन पक्ष की पैरवी कर रहे थे। कई वरिष्ठ और कनिष्ठ वकील उनकी मदद कर रहे थे। कार्तिकेयन सहित अन्य जांच अधिकारी दिन भर कोर्ट में मौजूद रहते थे। एन नटराजन पूर्व सोलिसिटर जनरल थे और तमिलनाडु के नामी वकील थे और वे अभियुक्तों की पैरवी कर रहे थे। उनकी मदद के लिए अन्य वकीलों की फ़ौज भी थी। बहस लगभग चार महीने चली। मैं यह इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि इस अपील पर सुनवाई के दौरान एक मामला घटा।

    जांच अधिकारियों ने जब अलग अलग स्थानों से इन आरोपियों को गिरफ्तार किया तो उनसे कई दस्तावेज और 40 लाख रुपए मूल्य की भारतीय मुद्रा भी जब्त की थी। जब इस मामले पर सुनवाई शुरू हुई, मैंने एक सवाल उठाया। ये जितने अभियुक्त हैं वे सबके सब श्रीलंका के एलटीटीई के सदस्य हैं। उनके पास कुछ श्रीलंकाई मुद्रा हो, यह बात तो मैं मान सकता हूँ। पर इतनी बड़ी 40 लाख रुपए की रकम की भारतीय मुद्रा, जो कि उस समय के लिहाज से काफी था, उनके पास से जब्त हुआ है। इसका मतलब तो यह है कि वित्तीय रूप से किसी शक्तिशाली व्यक्ति ने उनकी मदद की है। क्या आपकी जांच ने इस बारे में कोई सूचना जुटाई है? कार्तिकेयन जो उस समय कोर्ट में मौजूद थे, उनसे सलाह मशविरा करने के बाद सोलिसिटर जनरल अल्ताफ अहमद ने मुझे कहा कि वह इसका उत्तर अगले ही दिन दे पाएंगे।

    अगले दिन, जब सुनवाई शुरू हुई, अल्ताफ ने कहा, “मुझे दुःख है कि जांच अधिकारी अभी तक यह पता नहीं कर पाए हैं कि भारतीय मुद्रा में इतनी बड़ी रकम का स्रोत क्या था।” इस जवाब से मैं हक्का-बक्का रह गया। मैंने पीठ के अन्य जजों से भी अपनी इस चिंता का जिक्र किया था। निस्संदेह, जांच के क्रम में यह एक बहुत बड़ी चूक थी और मैं इस बारे में आश्वस्त था कि कम से कम इस अदालत में यह जांच अधूरी थी।

    सुनवाई के बाद जब केस को अंतिम फैसले के लिए रखा गया, मेरे एक सहयोगी जज ने पूछा कि क्या मैं ऐसा कर सकता हूँ कि इस मामले की विस्तृत और सफलतापूर्वक जांच करने वाले दल की आलोचना नहीं करूं। मैंने अपने सहयोगी जजों से कहा कि यह अच्छा होगा कि अगर फैसले में हम जांचकर्ता दल की आलोचना न करें तो उनकी प्रशंसा भी न करें। इस मामले में हमलोगों ने अलग अलग फैसले लिखे। मैंने इस बात का ख़याल रखा कि अपनी टिप्पणी में जांचकर्ता दल की न तो प्रशंसा करूं और न ही आलोचना। पर दूसरी ओर, न्यायमूर्ति वाधवा ने अपने फैसले में जांच दल की खूब प्रशंसा की। अधिकाँश अखबारों में यह दूसरी हेडलाइन बनी कि सुप्रीम कोर्ट ने जांच अधिकारियों की बहुत प्रशंसा की है। अपने साथी जजों के इस कदम की मुझे थोड़ी भी उम्मीद नहीं थी। पर अपनी असहजता को नियंत्रण में रखते हुए मैं सहज बना रहा। हमारे फैसले में सात अभियुक्तों को दोषी ठहराया गया और शेष 19 को बरी कर दिया गया। बाद में मैंने अभियुक्त नंबर 26, रंगनाथ का एक इंटरव्यू “द वीक” में पढ़ा। इस मैगज़ीन के संवाददाता को उसने कहा था, “जब हमें गिरफ्तार किया गया था तब पूछताछ के दौरान मैंने यह बताया था कि हमें 40 लाख रुपए चंद्रास्वामी ने दिए थे। हमसे पूछताछ करने वाले अन्य अधिकारी इस पर काफी नाराज हो गए और कहा कि क्या तुम लोग देश के वर्तमान प्रधानमंत्री चंद्रशेखर पर चंद्रास्वामी के प्रभाव को नहीं जानते हो। मुझे मुँह बंद रखने की हिदायत दी गई।”

    जब मैं “द वीक” में इस इंटरव्यू को पढ़ रहा था, तब मैं सोलिसिटर जनरल और मुख्य जांचकर्ता  द्वारा मेरे प्रश्न के उत्तर में अदालत में जो मुझे बताया गया था उसके बारे में सोच रहा था। उस समय मेरे मन में जो गुस्सा आया उसको मैं आजतक भुला नहीं पाया हूँ।

    राजीव गाँधी की हत्या मामले में चंद्रास्वामी की भूमिका की जांच की ही नहीं गई। मैं आज भी यह सोचता हूँ कि यह भारतीय आपराधिक प्रक्रिया की व्यवस्था पर एक बहुत बड़ा धब्बा है।

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