कई राज्यों में उच्च न्यायालय की एक से अधिक पीठ तो होनी ही चाहिए

LiveLaw News Network

14 Nov 2017 4:11 AM GMT

  • कई राज्यों में उच्च न्यायालय की एक से अधिक पीठ तो होनी ही चाहिए

     न्यायपालिका प्रजातांत्रिक व्यवस्था की रीढ़ है। एक स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका जनतंत्र के बचे रहने की कुछ मूल शर्तों में एक है। हमारे सामने कई ऐसे लोकतंत्र हैं जिनकी विश्वसनीयता संदेह के दायरे में है और ऐसा सिर्फ इसलिए है कि वहाँ की न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं है और वह या तो कार्यपालिका के इशारे पर काम करती है या फिर काम करती ही नहीं है।

    न्याय मिलना और वह समय पर न्याय मिलना, लोकतंत्र को एक जीवंत राजनीतिक व्यवस्था बनाता है। हमारे देश में लोगों को न्याय की गारंटी संविधान प्रदत्त अधिकार है। संविधान सभा में जो वचन दिए गये हैं वे वचन ही इस देश का शासन है और संविधान ने न्याय का लक्ष्य पाने के लिए, न्याय तक पहुँचने में आने वाली बाधाओं को दूर करने का दायित्व राज्य को सौंपा है। न्याय तक पहुँच से मतलब है - न्यायालय तक पहुँचने के रास्तों को आसान करना ताकि जैसे ही किसी भी भारतीय नागरिक को अपने अधिकारों पर या संवैधानिक मूल्यों पर खतरा महसूस हो वह न्यायालय तक आसानी से पहुँच सके।

    संविधान सिर्फ हमारे मूल अधिकारों की ही बात नही करता बल्कि हमारे मूल कर्तव्यों एवं राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के बारे में भी बताता है। मतलब यह कि राज्य नीतिगत फैसले लेते समय किन तत्वों को ध्यान में रखेगा और एक नागरिक के तौर पर हमें किन संवैधानिक मूल्यों का पालन करना है ।

    संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार राज्य, भारतीय भूभाग में रह रहे किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नही करेगा।

    संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं। एवं

    संविधान के अनुच्छेद 39(क) के अनुसार प्रत्येक राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि न्यायिक तंत्र इस प्रकार काम करे कि सामान अवसर के आधार पर सभी लोगों को न्याय सुलभ हो। कोई नागरिक आर्थिक एवं अन्य अयोग्यता के कारण न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए । इसलिए राज्य का यह कर्तव्य है कि वह उपयुक्त विधिक सहायता की व्यवस्था करे।

    तो यही वो संवैधानिक बुनियाद है जिसके आधार पर पिछले 38 वर्षों से उत्तर प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र एवं वर्ष 2000 में अलग राज्य बन जाने के बाद उत्तराखंड में भी उच्च न्यायालय की पीठ स्थापित करने की मांग को लेकर आंदोलन चल रहा है। यह आंदोलन सिर्फ उत्तराखंड में ही नहीं बल्कि देश के अन्य राज्यों में भी चल रहा है ताकि उन राज्यों में उच्च न्यायालय की एक से अधिक पीठ स्थापित हो सके और उस राज्य में दूर दराज में रहने वाले लोगों की न्याय तक पहुँच हो सके। वैसे भी कई कारणों से न्याय तक लोगों की पहुँच बाधित हो रही है और ऐसे में अगर प्रशासनिक कारणों से उस तक लोगों की पहुँच को दुर्गम बना दिया गया तो यह कहीं न कहीं राज्य को सौंपे गए संवैधानिक दायित्वों से मुकरना होगा।

    वर्ष 1966  में इलाहबाद उच्च न्यायालय अपनी स्थापना की 100वीं वर्षगांठ मना रहा था।  जब 1858 में भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का अंत हो गया तो अंग्रेजी हुकूमत ने न्यायिक प्रक्रिया के एकीकरण के लिए 1861 में इंडियन हाई कोर्ट एक्ट ब्रिटिश संसद में पास किया । उस समय उत्तर-पूर्व प्रांतों के लिए पहला उच्च न्यायालय 17 मार्च 1866 में आगरा में स्थापित हुआ और सर वाल्टर मॉर्गन इसके पहले मुख्य न्यायाधीश बने। 1868 में उत्तर-पश्चिम प्रांत के उच्च न्यायलय को आगरा से इलाहबाद स्थानांतरित कर दिया गया और 1919 में इसे ‘द हाई कोर्ट ज्युडीकेचर एट इलाहबाद’ का नाम दिया गया। भारत के आज़ाद होने के बाद अवध ज्यूडिशिअल कमिश्नर्स कोर्ट के बदले 1 जुलाई 1948 को लखनऊ में चीफ कोर्ट ऑफ़ अवध की स्थापना की गई। 25 फरवरी 1948 को चीफ कोर्ट ऑफ़ इलाहबाद हाई कोर्ट में मिला दिया गया । वर्ष 1955 में वादकारियों एवं उच्च न्यायालय पर काम के दबाव को देखते हुए उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्मंत्री डॉ. सम्पूर्णानन्द ने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से प्रदेश में उच्च न्यायालय के अन्य पीठों की स्थापना की मांग की जिसे उन्होंने यह कहते हुए ठुकरा दिया कि अभी इसकी जरूरत नही है।

    वर्ष 1980 में जब उच्च न्यायालय के अन्य पीठों की स्थापना की मांग ने जोर पकड़ा और धरने, प्रदर्शन, सेमिनार आदि शुरू हो गए तो उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्मंत्री नारायण दत्त तिवारी ने प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से मिलकर इस मुद्दे की गंभीरता पर बात की और इसके लिए आयोग के गठन की जरूरत बताई । इसके बाद इंदिरा गाँधी ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति जसवंत सिंह की अगुवाई में एक तीन सदस्यीय न्यायिक आयोग का गठन किया जिसने पूरे राज्य का दौरा किया और अपनी रिपोर्ट सौंपी जिसे 1986 में सार्वजनिक किया गया। इस रिपोर्ट में न्यायिक सुविधा एवं भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए आगरा, देहरादून एवं नैनीताल में उच्च न्यायालय के अन्य पीठ स्थापित करने की जरूरत बताई गई थी। लेकिन बाद में अगली सरकारों ने इन सुझावों को ठंडे बस्ते में डाल दिया।

    वर्ष 2009 में विधि आयोग ने 230वीं रिपोर्ट में अलग-अलग राज्यों में न्यायिक सुविधा के आकलन के बाद उच्च न्यायालय की एक से अधिक पीठ स्थापित करने की बात का समर्थन किया और अपनी अनुशंसा दी। इस आधार पर केंद्र सरकार ने कर्नाटक के धारवाड़ एवं गुलबर्गा में दो पीठों की स्थापना की जबकि उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड की भौगोलिक व सामाजिक स्थिति को देखते हुए जहाँ इसकी जरूरत थी वहाँ ऐसा नही किया।  मुंबई में भी उच्च न्यायालय के तीन पीठ कार्यरत हैं, नागपुर, पणजी व औरंगाबाद। मध्य प्रदेश में जबलपुर के अलावा ग्वालियर और इंदौर में  दो पीठ हैं।  ऐसे में यह कहना कि अन्य राज्यों में एक से अधिक हाई कोर्ट की पीठ नहीं हो सकती, तर्कसंगत नही है।

    19 जुलाई 2016 को अनीता कुशवाहा बनाम पुष्प सदन, के मामले में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने ‘न्याय तक पहुँच’ (Acess to Justice)’ को संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 21 के तहत मौलिक अधिकार बताया। इतना ही नहीं, उन्होंने ‘न्याय तक पहुँच’ के लिए चार तत्वों को रेखांकित किया –

    क) राज्य को एक प्रभावी न्यायिक तंत्र स्थापित करना चाहिए ।

    ख) न्यायिक तंत्र युक्तिसंगत दूरी को ध्यान में रखकर स्थापित होने चाहिएं।

    ग) न्यायिक प्रक्रिया सुस्त न हो। उसमें गतिशीलता बनी रहे।

    घ) वादी और प्रतिवादी दोनों के लिए न्यायिक प्रक्रिया सुविधाजनक हो ।

    इस प्रकार, एक राय तो बन रही है कि देश में उच्च न्यायालय की एक से अधिक पीठ तो होनी ही चाहिए।

    देश के अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने देश के सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामलों को देखते हुए केंद्र सरकार को सलाह दी है कि न्यायिक सुविधा के आधार पर सुप्रीम कोर्ट के तहत देश में चार ‘कोर्ट ऑफ अपील’ की स्थापना की जाए एवं सुप्रीम कोर्ट की मुख्य पीठ में केवल संवैधानिक एवं राष्ट्रीय हित के मुद्दों को ही सुना जाए।

    वादियों और प्रतिवादियों की सुविधा को देखते हुए ऐसे सुधार होने चाहिएं ताकि न्याय की अवधारणा मूर्त रूप ले सके।  देर से मिले न्याय की कोई महत्ता नही होती। अगर न्याय पाने के लिए किसी पीड़ित पक्ष को अपना सब कुछ खोना पड़े तो वास्तव में वह न्याय नही है।

    (लेखक देहरादून में एडवोकेट हैं और व्यक्त विचार उनके अपने हैं)

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