सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निरस्त करने वाले अध्यादेश पर एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश का हस्ताक्षर हास्यास्पद होने के अलावा भी बहुत कुछ है

LiveLaw News Network

11 Nov 2017 10:18 AM GMT

  • सुप्रीम कोर्ट के आदेश को निरस्त करने वाले अध्यादेश पर एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश का हस्ताक्षर हास्यास्पद होने के अलावा भी बहुत कुछ है

    यह बहुत ही अजीबोगरीब बात है कि भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश को समाप्त करने के लिए एक मुख्यमंत्री के साथ हाथ मिलाए। केरल के वर्तमान राज्यपाल सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश भी रह चुके हैं। लेकिन न्यायमूर्ति पी सदाशिवम को अब यह शर्मनाक स्थिति झेलनी पड़ रही है। राज्य के राज्यपाल की हैशियत से सदाशिवम को केरल सरकार के एक अध्यादेश पर हस्ताक्षर करना पड़ा है जिसमें दो स्व-वित्तपोषित मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश को नियमित करने का प्रावधान है। इन दोनों कॉलेजों में प्रवेश की प्रक्रिया को सुप्रीम कोर्ट ने रोक दिया था।

    इसे कार्यपालिका के अधिकारों का दुरुपयोग और न्यायिक अधिकार का निरादर ही कहा जाएगा कि केरल सरकार ने कन्नूर मेडिकल कॉलेज और करुना मेडिकल कॉलेज में अकादमिक वर्ष 2016-17 के लिए एमबीबीएस कोर्स में प्रवेश को नियमित करने के लिए सरकार ने अध्यादेश लाने का प्रस्ताव किया है। इन कॉलेजों में प्रवेश पर यह कहते हुए रोक लगा दिया गया था कि प्रवेश की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं थी। ऐसा समझा जाता है कि शुरुआत में राज्यपाल ने कानूनी गड़बड़ियों के होने के आधार पर इस अध्यादेश को लौटा दिया था। लेकिन जब सरकार ने इस पर जोर दिया, राज्यपाल ने अध्यादेश पर हस्ताक्षर कर दिया। लेकिन उनके इस अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने का मतलब यह है कि एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश होने के नाते उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का आदेश नहीं मानने के तरीकों को अपनी स्वीकृति दे दी। भले ही यह अजीबोगरीब लगे पर यह है; शायद यह इस वजह से है कि सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश ने राज्यपाल होना स्वीकार किया।

    केरल सरकार ने केरल प्रोफेशनल कॉलेजेज (रेगुलाराईजेशन ऑफ़ एडमिशन इन मेडिकल कॉलेजेज) ऑर्डिनेंस 2017 (ऑर्डिनेंस नंबर 21 ऑफ़ 2017) पास किया है ताकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को धता बताते हुए वह प्रवेश की अनुमति दे सके। इस अध्यादेश को 20 अक्टूबर को अधिसूचित किया गया लेकिन इसमें कई तरह की संवैधानिक खामियां हैं। यद्यपि अध्यादेश में इसकी कोई चर्चा नहिं है, पर इसकी पृष्ठभूमि पर अगर तथ्याताम्क दृष्टि से गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इस अध्यादेश से कन्नूर और करुना मेडिकल कॉलेजों को लाभ पहुंचाने की मंशा है।

    प्रवेश को रद्द करने की पृष्ठभूमि और तथ्य

    कन्नूर मेडिकल कॉलेज एक स्व-वित्तपोषित संसथान है जिसको एक निजी ट्रस्ट प्रेस्टीज एजुकेशन ट्रस्ट चलाता है। इसी तरह करुणा मेडिकल कॉलेज का संचालन सेफ डेवलपमेंट आल्म्स ट्रस्ट करता है। वर्ष 2016-17 के बाद इन मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश एनईईटी की मेरिट सूची के आधार काउंसेलिंग की प्रक्रिया पूरी करने के बाद होना था। इन कॉलेजों में जहाँ तक प्रवेश का प्रश्न है, हाई कोर्ट ने इस बारे में 26 अगस्त 2016 को एक आदेश डब्ल्यूपी (c) 28041/16 पास किया था। इस आदेश में कहा गया था कि प्रवेश के लिए आवेदन सिर्फ ऑनलाइन प्राप्त किए जाएंगे और ये आवेदन एडमिशन सुपरवाईजरी कमिटी द्वारा जांच के लिए अंतिम तिथि के समाप्त होते ही अपलोड कर दिया जाना जाएगा। आदेश में यह भी कहा गया था कि प्रवेश की प्रक्रिया प्रोस्पेक्टस के आधार पर ही पूरी की जानी चाहिए और जिसके लिए एडमिशन सुपरवाईजरी कमिटी की अनुमति ले ली गई है।

    एडमिशन सुपरवाईजरी कमिटी  Kerala Professional Colleges or Institutions( Prohibition of Capitation Fee, Regulation of Admission,Fixation of Non-exploitative fee and other measures to ensure equity and excellence in professional education) Act 2006 के तहत एक वैधानिक निकाय है। इस कमिटी के अनुसार, इन दो कॉलेजों की ओर से इन आदेशों का खुला उल्लंघन हुआ था। अधिकाँश समय तक कॉलेजों के वेबसाइट काम नहीं कर रहे थे और पर्याप्त समय तक इन तक पहुँचाना भी मुश्किल था। इन कॉलेजों ने अपने वेबसाइट पर आवेदन के विवरण, रद्द किए गए आवेदनों, आवेदनों को ठीक करने के पर्याप्त मौके दिए गए या नहीं इसके विवरण, अंतिम रूप से तैयार किए गए लिस्ट के बारे में जानकारियाँ नहीं डालीं। कमिटी ने कन्नूर मेडिकल कॉलेज के साईट पर ट्रस्टी और स्टाफ के आश्रितों के प्रबंधन कोटा के बारे में जानकारियों को अपर्याप्त पाया। कॉलेज के फीस का निर्धारण एकपक्षीय तरीके से किया गया था और इस बारे में सरकार के साथ किसी भी तरह का समझौता नहीं किया गया था। कमिटी ने फीस को अत्यधिक पाया था और इसे कम कर दिया था।

    कमिटी के सुझावों को संस्थान ने चुनौती दी थी जिसे हाई कोर्ट ने 28 अक्टूबर 2016 को दिए अपने फैसले में अस्वीकार कर दिया था। हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, “आवेदनकर्ता संस्थानों ने 23 अगस्त 2016 को कोर्ट के आदेश विशेषकर शर्त नंबर (ii) के साथ जिस तरह से बर्ताव किया है उससे कोर्ट ज्यादा चिंतित है। इस शर्त के अनुसार, याचिकाकर्ता को सभी ऑनलाइन आवेदनों को अंतिम तिथि की समाप्ति पर ‘प्राप्त’ श्रेणी में अपलोड करना चाहिए था ताकि इसके बाद एडमिशन सुपरवाईजरी कमिटी इसकी जांच करती। अगर इन कॉलेजों ने इन प्रक्रियाओं को अधिसूचित किया होता और एडमिशन सुपरवाईजरी कमिटी ने उसी समय उसका निपटारा कर दिया होता और इस तरह इन आदेशों का पालन किया होता तो इन प्रक्रियाओं पर आगे कारर्वाई करते हुए बिना किसी कठिनाई के इसे पूरा किया जा सकता था। इससे सभी संबंधित लोगों को अपनी स्थिति की जानकारी होती। कमिटी की इस बात पर भी गौर करना जरूरी है जिसमें उसने कहा है कि यह तथाकथित सूची जिसके बारे में यह कहा जा रहा है कि इसे आयुक्त के समक्ष पेश किया गया उसे कमिटी के समक्ष जांच के लिए नहीं लाया गया और यहाँ तक कि इस कोर्ट के समक्ष भी इसे नहीं पेश किया गया। दोनों ही आवेदनकर्ता संस्थानों ने इस तरह की कई गड़बड़ियाँ की हैं और इन्होंने कोर्ट के साथ-साथ कमिटी और आयुक्त सहित सरकार का समय बर्बाद किया है। संस्थानों के इस रवैये की हाई कोर्ट ने सख्त आलोचना की और दोनों ही संस्थानों को एक-एक लाख रुपए का दंड भरने को कहा।

    सुप्रीम कोर्ट ने भी इन कॉलेजों में प्रवेश को रद्द करने के आदेश को सही ठहराया और इन कॉलेजों द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका खारिज कर दी।

    अध्यादेश से नियमितीकरण

    आदेश के प्रस्तावना में कहा गया है कि जिन छात्रों का प्रवेश रद्द किया गया उसमें छात्रों की कोई गलती नहीं थी। यद्यपि प्रस्तावना में कहा गया है कि एडमिशन सुपरवाईजरी कमिटी ने प्रवेश रद्द किया है पर इसमें हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के इस बारे में निर्णय का जिक्र नहीं किया गया है। धारा 2 के प्रावधानों के बावजूद सरकार किसी भी मेडिकल कॉलेज के लिए वर्ष 2016-17 के अकादमिक सत्र में प्रवेश को किसी भी कोर्ट या किसी अन्य तरह के निर्णय के बावजूद नियमित कर सकती है। जहाँ तक धारा 3 की बात है, नियमितीकरण चाहने वाले कॉलेज के प्रबंधन को इस बारे में 15 दिनों के अंदर आवेदन देना होगा। अध्यादेश में नियमितीकरण फीस का भी जिक्र है जिसे धारा 5 के तहत प्रति छात्र तीन लाख रुपए निर्धारित किया गया है। कुल मिलाकर यह हर छात्र से तीन लाख रुपए लेकर रद्द प्रवेश को नियमित कर देने का मामला लगता है।

    अध्यादेश न्यायिक आदेश को इस तरह खुल्लमखुल्ला अशक्त नहीं कर सकता

    यह स्थापित रूप से कहा जा चुका है कि विधायिका सिर्फ एक घोषणा मात्र से किसी न्यायिक निर्णय को किसी भी समय प्रत्यक्षतः पलट नहीं सकता (मदन मोहन पाठक बनाम भारत सरकार एआईआर 1978 एससी 803)। इसका मतलब यह हुआ कि अगर कोर्ट यह कहता है कि “यह” काम नहीं किया जा सकता तो विधायिका को यह अधिकार नहीं है कि वह अगला क़ानून बनाकर यह कहे कि “यह” काम किया जा सकता है (तमिलनाडु राज्य सरका बनाम एम रायाप्पा गौंदर, एआईआर 1971 एससी 231)। निश्चित रूप से विधायिका फैसले के आधार को क़ानून बनाकर किसी फैसले के प्रभाव को बदल सकता है या किसी क़ानून की कमियों को क़ानून बनाकर दूर कर सकता है। पर विधायिका किसी न्यायिक फैसले को सीधे सीधे यह कहते हुए व्यर्थ करार नहीं दे सकता कि फैसला उपयुक्त नहीं है। यह अध्यादेश निश्चित रूप से बाद वाली श्रेणी में आता है। अगर इसको न्यायिक प्रक्रिया में दखल के रूप में देखा जाता है तो इस तरह के क़ानून इस आधार पर व्यर्थ ठहराए जा सकते हैं कि ये शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के खिलाफ हैं। सुप्रीम कोर्ट की एक संवैधानिक पीठ ने केरल राज्य बनाम तमिलनाडु राज्य एआईआर 2014 एससी 2407 के मामले में इसकी घोषणा कर चुकी है। इसके बाद केरल की विधायिका ने केरल इरिगेशन एंड वाटर कंजर्वेशन (अमेंडमेंट) एक्ट 2003 पास किया ताकि इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व फैसले को वह निष्प्रभावी बना सके। सुप्रीम कोर्ट के फैसले में यह कहा गया था कि मुल्लपेरियार बाँध में पानी के स्तर को 142 फुट तक बनाए रखा जाए। संशोधित अधिनियम में कहा गया कि पानी के स्तर को 136 फुट से ऊपर नहीं जाने दिया जाए। पर न्यायालय ने इस संशोधन अधिनियम को रद्द कर दिया।

    अध्यादेश के बाबत इस सिद्धांत के प्रावधानों के और कठोर होने की जरूरत है क्योंकि यह कार्यपालिका द्वारा क़ानून बनाने का एक अप्रत्यक्ष तरीका है जिसमें विधायिका की अनदेखी की जाती है। अध्यादेश लाने का अधिकार कोई क़ानून बनाने का समानांतर अधिकार नहीं है और इस अधिकार का प्रयोग तभी हो सकता है जब विधायिका का सत्र नहीं चल रहा है। अध्यादेश कार्यपालिका को क़ानून बनाने के किसी आपात स्थिति से निपटने के अधिकार के रूप में दिया गया है (आरके गर्ग बनाम भारत सरकार 1981, 4 एससीसी 675)। डीसी बाधवा बनाम बिहार सरकार, (1987), 1 एससीसी 378 मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर कार्यपालिका विधायिका के क़ानून बनाने के अधिकार को हड़प लेती है तो “यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सीधे-सीधे तबाह करने जैसा है जो कि हमारे संविधान का मूलाधार है, लोग विधायिका द्वारा बनाए गए क़ानून से शासित नहीं होकर कार्यपालिका द्वारा बनाए गए क़ानून से शासित होंगे”। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अध्यादेश छोटी अवधि के लिए आपातकालीन कदम है जो कि विधायिका के अगले सत्र के शुरू होने तक की अवधि के लिए होता है। पर इस मामले में ऐसी कौन सी आपातस्थिति आ गई है कि विधानसभा के अगले सत्र के शुरू होने तक इंतज़ार नहीं किया जा सकता जो कि 9 नवंबर से शुरू होने वाला था?

    यह नोट करना भी जरूरी है कि सुप्रीम कोट के सात सदस्यीय पीठ ने हाल ही में अपने फैसले में कहा था कि अध्यादेश को विधायिका के सामने रखने जरूरी है ताकि ‘अध्यादेश राज’ की स्थिति कायम होने से बचा जा सके।

    एकल व्यक्ति क़ानून

    यह अध्यादेश ‘एकल व्यक्ति क़ानून’ के दोष से भी मुक्त नहीं है।  एकल व्यक्ति क़ानून  एक ऐसा क़ानून है जो किसी व्यक्ति विशेष, चिन्हित व्यक्ति या निकाय को फ़ायदा पहुंचाने के लिए होता है न कि आम लोगों को। संवैधानिक न्यायालय इस पर अपनी बहुत कृपा नहीं दिखाते क्योंकि यह अनुच्छेद 14 के समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है (चिरंजीत लाल चौधरी बनाम भारत सरकार एवं अन्य एआईआर 1951 एससी 41)। इस अध्यादेश का लाभ सिर्फ कन्नूर और करुणा मेडिकल कॉलेज को होने जा रहा है। और ये अपने आप में एक वर्ग नहीं हैं। सो इस अध्यादेश के बारे में एक ही बात कही जा सकती है कि यह संविधान के साथ एक मजाक है। और जब देश का एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश इस तरह के एक अध्यादेश पर हस्ताक्षर कर देता है तो इसे संवैधानिक रूप से शर्मसार करनेवाला ही कहा जा सकता है।

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