बाबरी मस्जिद मामला-भाजपा नेताओं के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र के आरोप फिर से लगाने की मांग वाली सीबीआई की अपील पर फैसला सुरक्षित
LiveLaw News Network
31 May 2017 5:20 PM IST
गुरूवार को सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई की उस अपील पर फैसला सुरक्षित रख लिया है कि जिसमें भाजपा नेताओं सहित भाजपा के वरिष्ठ नेता एल.के आडवाणी और बीस अन्य के खिलाफ बाबरी मस्जिद मामले में आपराधिक षड्यंत्र के आरोप फिर से लगाने की मांग की है।
न्यायमूर्ति पी.सी घोष और न्यायमूर्ति आर नरीमन की खंडपीठ ने इस मामले में लगभग पूरा दिन सीबीआई,आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी व अन्य के वकीलों की दलीलें सुनने के बाद इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है।
वहीं सभी पक्षकारों को निर्देश दिया है कि वह मंगलवार तक अपनी लिखित दलीलें दायर कर दें।
सीबीआई की तरफ ए.एस.जी एन.के.कौल ने दलील दी कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का आदेश रद्द कर दिया जाना चाहिए और कारसेवकों को भड़काने वाला भाषण देने के मामले में आरोपियों के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र के आरोप लगाए जाने चाहिए।
दलील दी कि इस मामले में दो प्राथमिकी दर्ज है। पहली प्राथमिकी 197/1992(ढ़ाचे को ढ़हाना),इस मामले में सुनवाई लखनउ की कोर्ट में लंबित है। दूसरी प्राथमिकी 198/1992 (राजनीतिक नेताओं द्वारा भड़काने वाला भाषण देने का मामला),इस मामले में सुनवाई उत्तर प्रदेश के राय बरेली की कोर्ट में लंबित है।
यह दलीलें सुनने के बाद न्यायमूर्ति नरीमन ने पूछा कि आप मान लीजिए की हम आपराधिक षड्यंत्र के आरोप फिर से लगा देते है,परंतु उन तकनीकी कारणों का क्या होगा,जिनके आधार पर यह आरोप हटाए गए है।
कौल ने दलील दी कि प्राथमिकी 197/92 के तहत सभी आरोपियों के खिलाफ केस चल रहा है। जो विशेष कोर्ट के समक्ष लंबित हैै,जहां पर ढ़ाचे को ढ़हाने के लिए रचे गए षड्यंत्र का मामला लंबित है। इसलिए नेताओं को आरोपमुक्त करने के आदेश को रद्द किया जाना चाहिए।
खंडपीठ ने दिसम्बर 1992 से लेकर अब तक के घटनाक्रम को भी नोट किया और कौल से कहा कि अगर आपराधिक षड्यंत्र के आरोप लगा दिए गए तो उनका प्रैक्टिकल तौर पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
जिस पर वरिष्ठ अधिवक्ता ने सुझाव दिया कि कोर्ट में फिर से नए सिरे से सुनवाई शुरू की जाएगी,इस मामले में अभी सौ से ज्यादा गवाहों के बयान होने बाकी है। खंडपीठ ने इस मामले में इशारा किया है कि राय बरेली से केस सुनवाई के लिए लखनउ भेजा जा सकता है।
खंडपीठ ने सुझाव दिया कि इस केस को लखनउ में सुनवाई के लिए भेजा जा सकता है ताकि दोनों केस वहां की कोर्ट में चल सके। साथ ही इन मामलों में प्रतिदिन सुनवाई का आदेश दिया जा सकता है और सुनवाई को दो साल में पूरी करने के आदेश भी दे सकते है।
सीबीआई के वकील द्वारा दी गई दलीलें व पेश किए गए कागजातों को देखने के बाद न्यायमूर्ति नरीमन ने सुनवाई के दौरान अपना गुस्सा जाहिर करते हुए कहा कि तकनीकी कारणों से मामले की सुनवाई में दो दशक से भी ज्यादा का समय लग चुका है। न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा कि भम्र व इतने सारे कागजात होने के कारण हमारे लिए भी इस मामले में फैसला देना मुश्किल है।
आडवाणी व जोशी की तरफ से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता के.के वेणुगोपाल ने कोर्ट के उस सुझावप र आपत्ति जाहिर की,जिसमें आपराधिक षड्यंत्र के आरोप फिर से लगाने की बात कही गई थी। साथ ही केस को लखनउ कोर्ट में शिफट करने का सुझाव दिया है।
केस का वेन्यू बदलने का कोई आधार नहीं है। वहीं आपराधिक षड्यंत्र के आरोप फिर से लगाने के मामले में वेणुगोपाल ने कहा कि इससे केस फिर से शुरू हो जाएगा। पूर्व में इलाहाबाद कोर्ट ने इस केस को राय बरेली में चलने की अनुमति दे दी थी।
इस मामले में कोर्ट महाफिज-मस्जिद-वा-माक्यूबीर एंड मुद्दाई बाबरी मस्जिद के अध्यक्ष हाजी महबूब अहमद की तरफ से दायर एक अलग याचिका पर भी सुनवाई कर रही है। जिसमें कहा गया है कि इस समय भाजपा का शासन है और इस मामले में भागीदार राजनाथ सिंह गृहमंत्री है। इसलिए हो सकता है कि सीबीआई अपनी उस मांग पर दबाव न ड़ाले,जिसमें आपराधिक षड्यंत्र के आरोप फिर से लगाने की बात कही गई थी।
अहमद की तरफ से पेश पूर्व कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने दलील दी कि सीबीआई को दोनों मामलों में पूरक आरोप पत्र दायर करना चाहिए और दोनों केस की सुनवाई एक साथ होनी चाहिए। इस मामले को 25 साल बीत चुके है और अपने आप में यह एक बड़ी बात है।
इस दलील को सुनने के बाद वेणुगोपाल ने कहा कि घड़ी को पीछे नहीं घुमाया जा सकता है। उन्होंने प्राथमिकी 198/92 केस की सुनवाई लखनउ कोर्ट में चलाए जाने पर सवाल उठाते हुए कहा कि वह इस कोर्ट के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता है। साथ ही कहा कि इस बात के कोई सबूत नहीं है कि इस मामले में कोई षड्यंत्र रचा गया था।
न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा कि तकनीकी कारणों से 17 साल बीत चुके है,निचली अदालत ने आरोपियों को वर्ष 2001 में आरोपमुक्त किया था। इसलिए इस मामले में न्याय जरूरी है और संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत हमें यह अधिकार है कि हम न्याय करें। अगर राज्य डिफेक्ट को साफ नहीं करेगी तो हमें हस्तक्षेप करना होगा,इसलिए हम यह कदम उठा रहे हैं।
कोर्ट के विचार का विरोध करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा कि इससे मामले में शामिल लोगों के मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन होगा। उसने खंडपीठ को मनाने की कोशिश करते हुए कहा कि लखनउ कोर्ट एक सेशन कोर्ट है और राय बरेली कोर्ट फस्ट क्लास ज्यूडिशियल मैजिस्टेªट की कोर्ट है।
अगर केस को ट्रंासफर कर दिया गया तो उनके मुविक्कलों को लखनउ कोर्ट में अपील करने का अधिकार नहीं रहेगा। उन्होंने कई फैसलों का हवाला देते हुए कहा कि अनुच्छेद 142 कभी भी अनियंत्रित अधिकारों का स्रोत नहीं हो सकता है।
न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह ने अनुच्छेद 142 के तहत मिले अधिकारों के तहत संरक्षित इमारतें,पर्यावरण आदि की रक्षा के लिए कई आदेश दिए थे,परंतु इन मामलों में कोर्ट के विचार किसी व्यक्ति को अनुच्छेद 21 के तहत मिले जीने का अधिकार के विरोधाभासी थे। इस पर न्यायमूर्ति नरीमन ने कहा कि अफकोस जब तकनीकी कारणों से देरी हो रही हो तो हमारे पास अधिकार है।
पूर्व में छह मार्च को हुई सुनवाई के दौरान कोर्ट ने सीबीआई से पूछा था कि क्यों न भाजपा व आरएसएस नेता एल.के आडवाणी,मुरली मनोहर जोशी,उमा भारती,कल्याण सिंह,विनय कटियार व अन्य 15 के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र के आरोप फिर से लगा दिए जाए। साथ ही इशारा किया था इस मामले में राय बरेली व लखनउ कोर्ट में चल रहे दोनों मामलों को एक साथ जोड़ा जा सकता है।
सीबीआई ने इस मामले में आडवाणी व बीस अन्य के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया था। जिनमें सभी पर धारा भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए (जातियों के बीच नफरत को बढ़ाना),धारा 153बी(देश की एकता को नुकसान पहुंचाना),धारा 505 (गलत बयान व भ्रम आदि फैलाना ताकि आम जनता की शांति भंग हो सके)के तहत आरोप लगाए गए थे। बाद में इस मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 120बी (आपराधिक षड्यंत्र) के तहत भी आरोप लगाए गए थे,जिनको विशेष कोर्ट ने हटा दिया था और इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी विशेष कोर्ट के आदेश को सही ठहराया था।