पुणे सामूहिक दुष्कर्म और हत्या मामला- मौत की सजा के निष्पादन में अत्यंत देरीअसंवैधानिक, बाॅम्बे हाईकोर्ट फांसी को उम्रकैद में बदला, पढ़ें निर्णय

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5 Aug 2019 8:57 AM GMT

  • पुणे सामूहिक दुष्कर्म और हत्या मामला- मौत की सजा के निष्पादन में अत्यंत देरीअसंवैधानिक, बाॅम्बे हाईकोर्ट फांसी को उम्रकैद में बदला, पढ़ें निर्णय

    फांसी की सजा के निष्पादन या अमल में करने में अत्यंत व अकारण देरी की गई थी। इस मामले में की गई देरी को आसानी से टाला जा सकता था। दया याचिका और सजा के निष्पादन को जल्दी से पूरा किया जाना चाहिए था।

    एक महत्वपूर्ण फैसले में बाॅम्बे हाईकोर्ट ने दो आरोपियों को दी गई फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलते हुए उनको 35 साल कैद की सजा दी है। यह सजा वर्ष 2007 में पूने में एक बीपीओ कर्मी से सामूहिक दुष्कर्म व उसकी हत्या करने के मामले में दी गई है।

    जस्टिस बी.पी धर्माधिकारी और जस्टिस एस.एस जोशी की पीठ ने कहा कि फांसी की सजा के निष्पादन या अमल में करने में अत्यंत व अकारण देरी की गई थी।
    ''हमने पाया है कि इस मामले में की गई देरी को आसानी से टाला जा सकता था। दया याचिका और सजा के निष्पादन को जल्दी से पूरा किया जाना चाहिए था।''
    प्रदीप कोकड़े,30 वर्षीय और पुरूषोत्तम बोराटे 37वर्षीय ने उनके खिलाफ जारी फांसी के आदेश को रद्द करने की मांग की थी। वहीं राष्ट्रपति और महाराष्ट्र के राज्यपाल के समक्ष दायर दया याचिकाएं खारिज होने के आदेश को भी चुनौती दी।
    दोनों आरोपियों को वर्ष 2007 में 22 वर्षीय पीड़िता से दुष्कर्म करने व उसकी हत्या करने के बाद उसके शव को पूने के बाहर फेंक आने के मामले में दोषी करार दिया गया था। इन दोनों को 24 जून को फांसी की सजा दी जानी थी,परंतु हाईकोर्ट ने इनकी सजा के निष्पादन पर रोक लगा दी क्योंकि इनकी याचिकाओं पर सुनवाई लंबित थी।
    दलीलें
    याचिकाकर्ता दोषियों की तरफ से पेश वकील डाक्टर युग मोहित चैधरी ने दलील दी कि सजा के निष्पादन में 1507 दिन की देरी की गई यानि के चार साल एक महीना और छह दिन। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला 8 मई 2015 को सुनाया और इनकी सजा के निष्पादन की तारीख 24 जून 2019 तय की गई।
    ''महामहिम राज्यपाल और महामहिम राष्ट्रपति ने इनकी दया याचिकाएं खारिज करते समय सही से विचार नहीं किया। इस मामले में सेशन कोर्ट ने 20 मार्च 2012 को अपना फैसला सुनाते हुए फांसी की सजा दी थी। ये तब से एकांतवास में रह रहे है और आठ साल से ज्यादा एकांतवास या कालकोठरी में रहे है। इनको दी गई यह सजा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है। अंतिम दलील थी कि फांसी की सजा के वारंट बिना उनका पक्ष सुने जारी कर दिए गए,जो कि कानून की नजर में गलत है।''
    डाक्टर चैधरी ने यह भी इंगित किया कि सेशन कोर्ट ने अपने फैसले में इन आरोपियों को भारतीय दंड संहिता की धारा 302,376(दो)(जी),364 व 404 रिड विद धारा 120-बी के तहत दोषी करार दिया था। जिसे 25 सितम्बर 2012 को हाईकोर्ट ने भी उचित ठहराया था और आरोपियों की तरफ से दायर आपराधिक अपीलों को खारिज कर दिया था।
    सात जुलाई 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक अपील पर नोटिस जारी किया और आठ मई 2015 को इन अपीलों को खारिज कर दिया गया। उस तारीख के बाद 90 दिन के अंदर सजा को निष्पादन कर दिया जाना चाहिए था। परंतु उसके बाद जो समय लिया गया है वो असंवैधानिक है। उसने अपनी दलीलोें के सहयोग में सुप्रीम कोर्ट द्वारा शत्रुघ्न चैहान बनाम यूनियन आॅफ इंडिया व अन्य के मामले में दिए गए फैसले का हवाला भी दिया।
    वहीं एडवोकेट जनरल यानि महाधिवक्ता ए.ए कुंभकोनी ने यरवदा केंद्रीय कारागार अधीक्षक उमाजी पंवार के हलफनामे पर विश्वास करते हुए कहा कि याचिकाकताओं को एकांतवास में नहीं रखा गया था। न ही यरवदा जेल में फांसी यार्ड जैसी कोई जगह है। जिन कैदियों को फांसी की सजा नहीं दी जाती है,उनको भी हाई-सिक्योरटी यार्ड में रखा जाता है,जहां पर याचिकाकर्ताओं को रखा गया था। उसने बताया कि सिक्योरटी वार्ड का प्राचीन ओर औपनिवेशिक विवरण 'फांसी यार्ड' या उसे फांसी यार्ड माना जाता है। इन यार्ड में रहने वाले कैदी अन्य कैदियों से मिल सकते है,वह कोर्टयार्ड में खेल सकते है और उनके कमरों के सामने बने कोर्टयार्ड या काॅरिडौर या बरामदे में आपस में बात कर सकते है। उन्होंने दलील दी कि याचिकाकर्ताओं की यह दलील तथ्यात्मक गलत है कि सेशन कोर्ट के फैसले के बाद उनको एकांतवास में रखा गया था।
    अधीक्षक ने अपने हलफनामे में बताया कि सेशन कोर्ट के फैसले की काॅपी व मामले से जुड़े अन्य कागजात जब उसे मिले थे,उसके तुरंत बाद अधीक्षक ने सभी कागजात व सेशन कोर्ट का फैसला 27 जनवरी 2016 को गृह विभाग के पास भेज दिया था।
    वहीं पंवार ने बताया कि यह फैसले की काॅपी दया याचिका के साथ भेजी जानी चाहिए थी। जिससे साफ जाहिर है कि चार महीने व दस दिन की देरी की गई।
    यह भी दलील दी गई कि इस बात को सुनिश्चित करने के लिए उसके कार्यालय से सभी कागजात भेज दिए जाए,एक फरवरी 2016 को उन्होंने तालेगांव पुलिस को आग्रह किया कि वह पुलिस डायरी,अपराध का संक्षिप्त इतिहास और अन्य सामग्री सीधे महाराष्ट्र सरकार के गृह विभाग के पास सीधे भेज दे। दया याचिका खारिज होने की सूचना उनके पास 9 अप्रैल 2016 को आई थी और 11 अप्रैल 2016 को दोनों आरोपियों को इस बारे में सूचित कर दिया गया था।
    फैसला
    महाराष्ट्र के कारागार रूल्स 1963,रूल 11(1) के अनुसार अधीक्षक को दया याचिकाओं के आदेशों के संबंध में राज्य सरकार के टेलीग्रामों को अपनी रसीद की पावती के जरिए फिर से दोहराना होगा। ऐसे सभी पावती गृह विभाग में सरकार के सचिव को टेलीग्राम या एक्सप्रेस पत्रों द्वारा भेजी जानी चाहिए।
    पीठ ने पाया कि-
    ''टेलीग्राम या एक्सप्रेस पत्रों का प्रयोग सालों पहले किया जाता था,जो यह दर्शाता है कि तेजी या जल्दी की कितनी जरूरत है,इसलिए उस समय पर मौजूद संचार के सबसे तेज साधनों का प्रयोग होता था। अब ई-मेल,फैक्स या टेलीफोन मौजूद है।डिजिटल युग में इन डिवाइस का सहारा न लेन,जानबूझकर देरी करने या पटरी से उतारना है। यह टाले जा सकने वाली देरी का एक उदाहरण है।''
    इसके कोर्ट ने मामले के पूरे घटनाक्रम का निरीक्षण किया ताकि यह निर्धारित हो सके कि कितनी देरी की गई है-
    '' याचिकाकर्ताओं की दया याचिकाएं राज्य ने 28 अप्रैल 2016 को भेजी थी,जो भारत के राष्ट्रपति के पास 4 मई 2017 को पहुंची। महामहिम राष्ट्रपति ने इन पर 26 मई 2017 को फैसला लिया और इनको खारिज कर दिया। इसके संबंध में आरोपियों को 19 जून 2017 को सूचित कर दिया गया। दया याचिकाएं खारिज होने कके बाद देश के गृह मंत्रालय को फाइल 30 मई 2017 को मिली और उसके बाद 6 जून 2017 को राज्य सरकार को इस निर्णय के बारे में बता दिया गया था।
    प्रतिवादी नंबर दो राज्य सरकार ने हलफनामे के पैराग्राफ 14 व 15 में बताया है कि दया याचिका खारिज होने के बारे में 19 जून 2017 को अधीक्षक को बता दिया गया था। जिसने उसी दिन आरोपियों को भी इसकी सूचना दे दी। दया याचिका खारिज होने के बाद अगर मामले में देरी की बात की जाए तो सजा के निष्पादन में देरी हुई है।''
    पीठ ने कहा कि यहां तक कि यह मान लिया जाए कि विचार या मन की कवायद उन तारीखों पर शुरू कर दी गई थी,जिन पर संबंधित विभागों को एक सलाह मसौदा तैयार करने के लिए आवश्यक कागजात मिलते है,फिर भी उन दस्तावेजों को उपलब्ध कराने में खर्च की गई अवधि को केवल अवधि के रूप में नहीं देखा जा सकता है। अधिकारी निर्धारित प्रक्रियात्मक मानदंडों और समय के महत्व के बारे में अगवत थे। ऐसे में उस पत्राचार में लिप्त नहीं हो सकते है,जिसे नकारा जा सकता था।
    कोर्ट ने डाक्टर चैधरी की दलीलों को स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा शत्रुघ्न चैहाना बनाम यूनियन आॅफ इंडिया व अन्य के मामले में दिए गए फैसले का देखा। पीठ ने पाया कि-
    ''हमने इस मामले में पाया है कि फांसी की सजा के निष्पादन में की गई देरी अनुचित,असाधारण और अकारण थी। इस पांच साल की अवधि में दो साल के करीब दया याचिका लंबित रही थी,परंतु उसके बाद कोई कार्यवाही लंबित नहीं थी। यहां हमें एक दोषी की फांसी की सजा पर विचार करना होगा और उसे उस संवैधानिक कार्यप्रणाली से कोई लेना-देना नहीं है,जिसके कारण्ण देरी की है या इसमें योगदान दिया है। जब भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा संरक्षित संरक्षण दांव पर हो तो उस स्थिति में कार्यकारी,न्यायालय या राज्यपाल/ राष्ट्रपति एक ही स्थान पर आते है।
    शत्रुघ्न चैहान केस (सुपरा) में कहा गया है कि ''जांच व मामले की सुनवाई में लंबी देरी' भी निष्पादन में संबंधित मानक है। इसलिए राज्य के किसी भी शाखा द्वारा की गई देरी उसके मौलिक अधिकार के खिलाफ है। टाली जा सकने वाली देरी के कारण दी जाने वाली कोई भी अतिरिक्त सजा कानून के तहत नहीं आती है क्योंकि संवैधानिक अधिकारी के कारण अनुचित देरी हुई है। इसलिए हर परिस्थिति में इस तरह की अतिरिक्त सजा असंवैधानिक है। मात्रा या अवधि बहुत ज्यादा आवश्यक नहीं है। इसके अलावा,हमारे सामने आए दोषी 20 मार्च 2012 से एकांतवास में रह रहे है।''
    आरोपियों के खिलाफ जारी फांसी के आदेश को रद्द करते हुए कोर्ट ने कहा कि-
    ''मामले के सभी तथ्यों को देखने के बाद हमने पाया है कि हमारे सामने आए दोषी को उनकी फांसी की सजा के निष्पादन से राहत मिलनी चाहिए। इस परिस्थिति में हम उनकी फांसी की सजा को 35 साल की उम्रकैद में तब्दील कर रहे है,जिसमें उनके द्वारा जेल में बिताए दिन भी शामिल होंगे।''

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