संशोधित एससी/एसटी अधिनियम कोर्ट के अधिकार को सिर्फ़ उन मामलों में ज़मानत देने तक सीमित नहीं करता जहाँ किसी भी तरह का अपराध नहीं हुआ है : कलकत्ता हाईकोर्ट

Live Law Hindi

4 March 2019 11:59 AM GMT

  • संशोधित एससी/एसटी अधिनियम कोर्ट के अधिकार को सिर्फ़ उन मामलों में ज़मानत देने तक सीमित नहीं करता जहाँ किसी भी तरह का अपराध नहीं हुआ है : कलकत्ता हाईकोर्ट

    कलकत्ता हाईकोर्ट ने एक पत्रकार को अग्रिम ज़मानत दे दी है जिस पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम 1989 की धारा 3(1) (r) (u) के तहत मामला दर्ज किया गया है।

    न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बाग़ची और मनोजित मंडल ने कहा कि इस अधिनियम में धारा 18A को जोड़ने के बावजूद कोर्ट को इस बात की पड़ताल का अधिकार है कि एफआइआर में जिस तरह के आरोप लगाए गए हैं वे ठहरते हैं कि नहीं।

    यह एफआईआर एक बंगाली अख़बार के प्रकाशक के ख़िलाफ़ दर्ज किया गया है क्योंकि सबर समुदाय के लोगों ने उसमें प्रकाशित एक ख़बर "मृत्तु नोई सबरपल्लिर चिंता भात" (मौत नहीं, सबर समुदाय की चिंता भोजन है) को लेकर शिकायत दर्ज कराई है।

    अजीब बात यह है कि इस ख़बर में यह बताया गया था कि इस समुदाय को इलाज की सुविधा नहीं है, उन्हें बुनियादी सुविधाएँ जैसे पानी, आवास, जॉब कार्ड और वोटर कार्ड आदि भी नहीं है। ख़बर में आरोप लगाया गया कि प्रशासन द्वारा उनको सुविधाएँ नहीं दी जा रही हैं।

    "हम यह जानकर दुखी हैं कि यह ख़बर जिसने इस बात को सामने लाया है कि कैसे इस समुदाय को इतनी मुश्किलें झेलनी पड़ रही है और सरकार इनकी कोई मदद नहीं कर रही है, उसको कैसे यह माना जा रहा है कि इससे इस समुदाय का अपमान हुआ है और इनके ख़िलाफ़ घृणा और शत्रुता फैलाई गई है," पीठ नेपत्रकार की दलील सुनते हुए कहा।

    इस मामले में पीठ ने लोक अभियोजक की इस दलील का जवाब दिया कि इस अधिनियम में जोड़े नए प्रावधान के बाद एक बार जब एफआईआर दर्ज कर लिया जाता है तो फिर इसमें न्यायिक जाँच की भूमिका बहुत ही सीमित हो जाती है। पीठ ने कहा कि धारा 18A कोर्ट के सीमित अधिकार को नहीं ले सकता है।

    धारा 18A एक स्पष्टीकरण संशोधन है

    कोर्ट ने यह भी कहा कि धारा 18A सीआरपीसी की धारा 438 को लागू करने पर बड़ा प्रतिबंध लगाने के लिए नहीं जोड़ा गया था। कोर्ट ने यह भी कहा कि धारा 18 को हटाया नहीं गया है। धारा 18A की उपधारा 2, ऐसा लगता है कि स्पष्टकारी है।

    अख़बार के आलेख के बारे में पीठ ने कहा कि इसमें कहीं से भी अपमान, डराने धमकाने, शत्रुता, घृणा या दुराव की बात नहीं है। इसमें तो सबर समुदाय को पेश आने वाली दिक्कतों का ज़िक्र किया गया है और प्रकाशक मानता है कि इस समुदाय को बुनियादी सुविधाओं से वंचित किया जा रहा है।

    पीठ ने कहा,

    "हमारा मानना है कि कोई भी व्यक्ति जो थोड़ी भी समझ रखता है, इस आलेख से यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकता कि यह आलेख सबर समुदाय को अपमानित करने के लिए प्रकाशित किया गया है…"

    कोर्ट ने कहा,

    बहुलता लोकतांत्रिक प्रक्रिया में संवाद की आत्मा है। स्वतंत्र होकर अपना मत व्यक्त करना एक जीवंत और सजग लोकतंत्र के लिए बहुत ही आवश्यक है और प्रेस के लोगों को मिलनी वाले स्वतंत्रता की, जैसा कि इस याचिकाकर्ता को है और जो समाज में विचारों को फैलाने के पेशे में हैं, बहुत शिद्दत से रक्षा करने की ज़रूरतहै और मनमाने ढंग से किसी को गिरफ़्तार कर लेने या उस पर आपराधिक मामला चला देने जैसे हथकंडे से रोका नहीं जा सकता। 'बोलने की स्वतंत्रा' की सुरक्षा सबसे बेहतर तब होती है जब 'बोलने के बाद की स्वतंत्रा' को सुरक्षित किया जाए।


    Next Story