किसी व्यक्ति की जाति विवाह के आधार पर नहीं बदली जा सकती, पढ़िए मद्रास हाईकोर्ट का फैसला

LiveLaw News Network

22 Oct 2019 3:15 AM GMT

  • किसी व्यक्ति की जाति विवाह के आधार पर नहीं बदली जा सकती, पढ़िए मद्रास हाईकोर्ट का फैसला

    मद्रास हाईकोर्ट ने दोहराया है कि किसी व्यक्ति की जाति उसके जन्म के आधार पर निर्धारित होती है और इसे विवाह के आधार पर नहीं बदला जा सकता।

    हाईकोर्ट ने कहा,

    ''...यह उन अभाव, आक्रोश और अपमानों की वास्तविक परीक्षा है, जिनको समुदाय के सदस्य ने झेला है, इसलिए केवल विवाह या धर्म परिवर्तन को उस व्यक्ति के खिलाफ नहीं रखा जा सकता, जो वास्तव में अनुसूचित जाति समुदाय में पैदा हुआ था।''

    यह आदेश न्यायमूर्ति एन.आनंद वेंकटेश ने याचिकाकर्ता के.शांथी नामक महिला द्वारा अपने वकील आर. करुणानिधि के माध्यम से दायर याचिका पर दिया है। इस याचिका में मांग की गई थी कि जिला कलेक्टर को निर्देश दिया जाए कि वह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन नियम, 2016 के नियम 12 (4) के अनुसार राहत राशि का भुगतान करें।

    यह प्रावधान एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट को आवश्यक प्रशासनिक और अन्य व्यवस्था करने का व्यवस्था देता है। साथ ही अत्याचार के शिकार लोगों, उनके परिवार के सदस्यों और आश्रितों को निर्धारित पैमाने के अनुसार सात दिनों के भीतर नकद या अन्य तरह से या दोनों तरीकों से राहत प्रदान करने का भी प्रावधान करता है।

    याचिकाकर्ता कथित रूप से आईपीसी की धारा 294 (बी), 324 और 506, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 2014 के नियम 3 (1) (एस) के तहत दंडनीय अपराध की शिकार थी। ये अपराध दुर्व्यवहार या जातिसूचक गाली (जाति से) ,स्वेच्छा से चोट पहुंचाने और आपराधिक धमकी से संबंधित है। इसी कारण एक मामला विशेष अदालत के समक्ष भी लंबित था।

    इसी बीच, याचिकाकर्ता ने रूल्स 2016 के नियम 12 (4) के तहत 1,50,000 रुपये की क्षतिपूर्ति या मुआवजे की मांग की थी, लेकिन कलेक्टर ने उसके प्रतिनिधित्व पर विचार नहीं किया था।

    राज्य की दलील

    ट्रायल के दौरान अतिरिक्त पीपी, एस.चंद्रशेखरन ने दलील दी कि जिला कलेक्टर द्वारा की गई एक स्वतंत्र जांच में पाया गया है कि याचिकाकर्ता मांगे गए मुआवजे की हकदार नहीं थी। जांच में पाया गया कि भले ही वह जन्म से अनुसूचित समुदाय से संबंधित थी, लेकिन अब वह ईसाई धर्म का पालन कर रही है। अतिरिक्त पीपी ने स्पष्ट किया कि उनके पति ने ईसाई धर्म अपना लिया था और वह पिछड़े वर्ग से संबंध रखता है, इसलिए, याचिकाकर्ता भी पिछड़ा वर्ग समुदाय के अंतर्गत आएगी।

    इस तर्क को खारिज करते हुए, न्यायमूर्ति वेंकटेश ने कहा कि केवल इसलिए कि याचिकाकर्ता का पति ईसाई है, वास्तव में इसका मतलब यह नहीं होगा कि महिला भी ईसाई है।

    पीठ ने कहा,

    ''यह साबित करने के लिए बिल्कुल भी कोई सामग्री या तथ्य नहीं है कि याचिकाकर्ता ने भी ईसाई धर्म अपना लिया है। भले ही याचिकाकर्ता का पति ईसाई धर्म का पालन कर रहा हो, लेकिन इससे याचिकाकर्ता स्वत: ईसाई नहीं हो जाती। याचिकाकर्ता की वह मूल स्थिति जारी रहेगी, जिसके तहत वह अनुसूचित जाति समुदाय से संबंध रखती है।''

    आगे स्पष्ट करते हुए पीठ ने कहा कि किसी व्यक्ति की जाति विवाह से प्रभावित नहीं होगी। पीठ ने कहा,''किसी व्यक्ति की जाति केवल जन्म के आधार पर निर्धारित की जाती है और इसे विवाह के आधार पर नहीं बदला जा सकता है। असली परीक्षा यह है कि कोई सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से असक्षम या असमर्थ होना चाहिए या उसने असक्षमता का सामना किया हो।''

    सुनीता सिंह बनाम यूपी राज्य व अन्य , (2018) 2 एससीसी 493 के मामले का हवाला दिया गया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने निर्विवाद रूप से माना था कि-

    ''इस बात पर विवाद नहीं हो सकता है कि जाति जन्म से निर्धारित होती है और अनुसूचित जाति के व्यक्ति के साथ विवाह करके जाति को नहीं बदला जा सकता है... केवल इसलिए कि उसके पति एक अनुसूचित जाति वर्ग से संबंधित हैं, अपीलकर्ता को ऐसा जाति प्रमाण पत्र जारी नहीं किया जा सकता है जिसमें उसकी जाति को अनुसूचित जाति दिखाया जाए।''

    राज्य की तरफ से दी गई कमजोर दलीलों को और सीमित करते हुए, अदालत ने कहा कि कलेक्टर के निष्कर्ष का विरोध पुलिस के निष्कर्षों या जांच रिपोर्ट से भी किया गया था। पुलिस ने अपनी अंतिम रिपोर्ट में माना था कि याचिकाकर्ता अनुसूचित जाति समुदाय से संबंधित है और यही रिपोर्ट विशेष अदालत को भी दी गई थी।

    इस संबंध में पीठ ने कहा,

    ''यदि इस तरह का स्टैंड लिया जाता है, तो यह समझ नहीं आ रहा है कि प्रतिवादी पुलिस अपनी उस अंतिम रिपोर्ट को कैसे सही साबित कर पाएगी, जो पहले से ही अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अधिनियम की विभिन्न धाराओं के तहत किए गए अपराध के लिए दायर की जा चुकी है, इसलिए, यह स्पष्ट है कि इस तरह के विरोधाभासी रुख केवल याचिकाकर्ता को मुआवजे से वंचित करने के लिए लिए गए हैं, जिसके लिए वह उपरोक्त नियमों के तहत हकदार है।

    इसलिए, कलेक्टर को निर्देश दिया जाता है कि वह रूल्स 2016 के नियम 12 (4) के तहत छह सप्ताह के अंदर याचिकाकर्ता को 1,50000 रुपये (200000 की कुल राहत का 75 प्रतिशत) मुआवजे के तौर पर दें दे।''

    फैसले की कॉपी डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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