रामजन्मभूमि- बाबरी विवाद : CJI ने नई संविधान पीठ बनाई, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस नजीर फिर शामिल

Rashid MA

26 Jan 2019 8:58 AM GMT

  • रामजन्मभूमि- बाबरी विवाद :  CJI ने नई संविधान पीठ बनाई, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस नजीर फिर शामिल

    अयोध्या रामजन्मभूमि- बाबरी मस्जिद जमीन विवाद पर सुनवाई करने के लिए चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने नई संविधान पीठ का गठन किया है, जिसमें जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर को फिर से शामिल किया गया है।

    अब इस पीठ में चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस एस. ए. बोबडे, डी. वाई. चंद्रचूड, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर होंगे। नई पीठ 29 जनवरी को मामले की सुनवाई करेगी। पीठ में जस्टिस एन. वी. रमण को शामिल नहीं किया गया है, जबकि जस्टिस यू. यू. ललित ने इस मामले की सुनवाई से खुद को पहले ही अलग कर लिया है।

    बीते 10 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में 5 जजों की संविधान पीठ में सुनवाई उस वक्त टल गई थी जब पीठ में शामिल जस्टिस यू. यू. ललित ने सुनवाई से खुद को अलग कर लिया क्योंकि वो वर्ष 1997 में बाबरी मस्जिद मामले में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के लिए पेश हुए थे।

    उस वक्त चीफ जस्टिस गोगोई ने ये भी साफ किया था कि इस मसले को 3 जजों की बजाए 5 जजों को भेजे जाने का फैसला 27 सितंबर के आदेश के विपरीत नहीं है बल्कि ये प्रशासनिक फैसला उन्होंने सुप्रीम कोर्ट नियम के आदेश VI के नियम 1 के तहत लिया है, जिसमें कहा गया है ऐसे केस को चीफ जस्टिस 5 जजों की पीठ को भेज सकते हैं।

    उन्होंने कहा था कि इस केस के कागजात 15 ट्रंक में रखे हैं और रजिस्ट्री को निर्देश दिया जा रहा है कि वो तमाम रिकार्ड चेक करके तय करें कि ट्रांसलेशन का काम पूरा हुआ है या नहीं, और अगर नहीं हुआ है तो यह कब तक पूरा होगा।

    इससे पहले 27 सितंबर 2018 को तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस. अब्दुल नजीर की बेंच ने 2:1 के बहुमत से फैसला दिया था कि वर्ष 1994 के संविधान पीठ के फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत नहीं है, जिसमें कहा गया था कि मस्जिद में नमाज पढना इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है।

    तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा और जस्टिस अशोक भूषण ने बहुमत के फैसले में मुस्लिम दलों में से एक के लिए पेश वरिष्ठ वकील राजीव धवन की दलीलों को ठुकरा दिया था कि 1994 के 5 जजों के संविधान पीठ के फैसले कि "मस्जिद में नमाज पढ़ना, इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है और नमाज कहीं भी पढ़ी जा सकती है, यहां तक की खुले में भी" पर फिर से विचार करने की आवश्यकता है।

    जस्टिस अशोक भूषण ने फैसला पढ़ते हुए कहा था कि ये टिप्पणी सिर्फ अधिग्रहण को लेकर की गई थी। सभी धर्म, मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और चर्च बराबर हैं। इस फैसले का असर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वर्ष 2010 में टाइटल के मुकदमे के फैसले पर नहीं पड़ा। इसलिए इस पर फिर से विचार की जरूरत नहीं है।

    पीठ ने जमीनी विवाद मामले की सुनवाई 29 अक्तूबर से शुरू होने वाले हफ्ते से करने के निर्देश जारी किए थे।

    वहीं तीसरे जज, जस्टिस एस. अब्दुल नजीर इससे असहमत रहे। उन्होंने कहा कि वर्ष 1994 के इस्माईल फारूखी फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता है, क्योंकि इस पर कई सवाल हैं। ये टिप्पणी बिना विस्तृत परीक्षण और धार्मिक किताबों के की गई। उन्होंने कहा कि इसका असर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले पर भी पड़ा। इसलिए इस मामले को संविधान पीठ को भेजा जाना चाहिए

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