क्या एक नाबालिग बच्चा अपने अभिभावक की मर्जी के खिलाफ किसी अन्य के साथ रह सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में गुजरात हाईकोर्ट के मत पर संदेह जताया [आर्डर पढ़े]

LiveLaw News Network

4 Jun 2018 7:27 AM GMT

  • क्या एक नाबालिग बच्चा अपने अभिभावक की मर्जी के खिलाफ किसी अन्य के साथ रह सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में गुजरात हाईकोर्ट के मत पर संदेह जताया [आर्डर पढ़े]

    सुप्रीम कोर्ट ने एक नाबालिग के अपने अभिभावक की इच्छा के विरुद्ध किसी अन्य के साथ रहने की इच्छा के बारे में गुजरात हाईकोर्ट के मत पर संदेह जताया, हालांकि उसने इस आदेश में कोई हस्तक्षेप नहीं  किया।

    न्यायमूर्ति एके  सिकरी और न्यायमूर्ति अशोक भूषण  की पीठ ने इस बारे में विशेष अनुमति याचिका को ख़ारिज कर दिया और कहा कि  वह इस मामले की वैधता पर गौर नहीं करना चाहती है।

    इस आदेश में कहा गया है, “चूंकि आलोच्य आदेश में सात साल की एक लड़की के संरक्षण दायित्व उसकी स्वाभाविक मां  को सौंपने का आदेश गया है, हम इस आदेश की वैधता में नहीं पड़ रहे हैं जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत इस याचिका में मांग की गई है।  इस तरह इस याचिका को खारिज किया जाता है। यद्यपि हाईकोर्ट के इस आदेश के पैरा 9 के अंत में जो बातें कही गई है उससे कुछ असहमति है।”

    गुजरात हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जी आर उधवानी ने एक मजिस्ट्रेट के आदेश के खिलाफ एक पुनर्विचार याचिका को खारिज करते हुए अपने आदेश में सात साल के बच्चे के दादा-दादी को इस बच्चे को उसकी मां  को सौंपने का आदेश दिया।

    इस बच्चे के पिता की मौत के बाद उसके दादा-दादी उसका पालन-पोषण कर रहे थे और बच्चे की मां  ने बच्चे का संरक्षण प्राप्त करने के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

    हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा था की 18  साल से काम उम्र के किसी नाबालिग में किसी भी तरह का निर्णय उसका स्वाभाविक अभिभावक या क़ानून के तहत नियुक्त कोई अभिभावक ही ले सकता है।

    मजिस्ट्रेट के आदेश को सही ठहराते हुए हाईकोर्ट ने कहा, “इसके बावजूद कि नाबालिग ने अपने अभिभावक के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के साथ रहना पसंद किया, उसके अभिभावक की इच्छा के विरुद्ध उसका संरक्षण किसी और को नहीं दिया जा सकता है. अगर इस तरह की परिस्थिति में अगर बच्चे का संरक्षण नहीं  दिया जाता है तो इसके खिलाफ आईपीसी की धारा 340 और 342 के तहत सजा दी जा सकती है।”

    सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस आदेश पर गौर किया और सुनवाई के दौरान  कहा, “बच्चे की भलाई ज्यादा महत्त्वपूर्ण है…ऐसी स्थिति में जबकि बच्चा अपनी इच्छा व्यक्त नहीं कर सकता, ऐसा कैसे कहा जा सकता है जा सकता कि एक बार जब कोई अभिभावक नियुक्त  कर दिया जाता है, तो भले ही जो हो, इस बच्चे का संरक्षण उसे अंत तक हासिल हो? हम इस सिद्धांत के प्रति अपना संदेह जताते हैं।”


     
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