बहुविवाह और निकाह- हलाला के खिलाफ नई याचिका को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ को भेजा गया

LiveLaw News Network

7 May 2018 8:11 AM GMT

  • बहुविवाह और निकाह- हलाला के खिलाफ नई याचिका को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ को भेजा गया

    सुप्रीम कोर्ट ने बहुविवाह और निकाह-हलाला पर प्रतिबंध लगाने की पांच याचिकाओं पर केंद्र सरकार से रुख स्पष्ट करने के निर्देश के एक माह बाद मामले को संविधान पीठ में भेजा और अब एक और पीड़ित महिला की याचिका पर केंद्र को नोटिस जारी किया गया है।

     मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस एएम खानविलकर और जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़ की पीठ ने शबनम द्वारा दायर की गई नई याचिका को भी उसी संविधान पीठ में भेज दिया।

     " ये कहना कि परंपरा जो निश्चित रूप से पर्सनल लॉ के क्षेत्र में आती है संविधान के तहत उसकी न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती, ये बचाव नहीं हो सकता, " शबनम ने तर्क दिया है।

    "याचिकाकर्ता धर्म द्वारा एक मुस्लिम है, एक गृहिणी, जो वर्तमान में बुलंदशहर, यू.पी. में अपने ससुराल में रह रही है, क्योंकि उसका पति किसी और महिला के साथ शादी कर चुका है तो उसे बाहर निकाल दिया गया है।”

    याचिका में कहा गया है कि बुलंदशहर के जौलीगढ़ के स्थानीय निवासियों ने याचिकाकर्ता के ससुराल वालों पर दबाव डाला और उसके बाद याचिकाकर्ता के ससुराल वाले घर में रहने की अनुमति देने के लिए तैयार हो गए।

    सुप्रीम कोर्ट  पहले से ही चार याचिकाओं पर सुनवाई के लिए तैयार हो चुका है- दो पीड़ितों नफीसा बेगम और समीना बेगम द्वारा दायर और दो वकील अश्विनी उपाध्याय और मोहसिन काथिरी द्वारा जिन्होंने बहुविवाह और निकाह-हलाला की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी है।

    जमीयत-उलमा-ए-हिंद ने भी इनका समर्थन करते हुए बहुविवाह और निकाह- हलाला प्रथाओं का समर्थन किया है।

    याचिकाओं में कहा गया है कि ये मुस्लिम पत्नियों को बेहद असुरक्षित, कमजोर और उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।

    उन्होंने प्रार्थना की है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम की धारा 2 को असंवैधानिक और अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), 15 (धर्म के आधार पर भेदभाव) और संविधान के 21 (जीने के अधिकार ) के उल्लंघन के रूप में घोषित किया जाना चाहिए।

    जमीयत-उलमा-ए-हिंद का तर्क है कि संविधान पर्सनल लॉ पर आधारित नहीं है और इसलिए अदालत प्रथाओं की संवैधानिक वैधता के सवाल की जांच नहीं कर सकती। उनका तर्क है कि सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने भी पहले मौकों पर निजी कानून द्वारा स्वीकृत प्रथाओं में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया। यही तर्क उन्होंने ट्रिपल तलाक को  चुनौती मामले में भी दिया था जिसे सुप्रीम कोर्ट पहले ही खारिज कर चुका है।

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