दिल्ली हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला : माँ-बाप से कहा, पसंद के अधिकार के हनन और उसको जबरन मानसिक अस्पताल भेजने के एवज में बेटी को मुआवजा दें [निर्णय पढ़ें]

LiveLaw News Network

21 April 2018 6:16 AM GMT

  • दिल्ली हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला : माँ-बाप से कहा, पसंद के अधिकार के हनन और उसको जबरन मानसिक अस्पताल भेजने के एवज में बेटी को मुआवजा दें [निर्णय पढ़ें]

    हादिया मामले में फैसले के बाद एक और बहुत ही अहम फैसला आया है। यह फैसला दिल्ली हाई कोर्ट ने सुनाया है। कोर्ट ने इस बात को स्वीकार किया है कि लोगों के पसंद के अधिकार और इसलिए जीवन, स्वतंत्रता, निजता और गरिमा को ख़तरा उस व्यक्ति के अपने माँ-बाप से आता है। कोर्ट ने एक लड़की के माँ-बाप से कहा है कि वह अपनी बेटी को तीन लाख रुपए का मुआवजा दे जिसको उसने संगीत के शिक्षक के घर से उठाया था और उसको एक दिन और एक रात मानसिक अस्पताल में गुजारने के लिए बाध्य किया जो कि एमएचए की धारा 19 और अनुच्छेद 21 का साफ़ उल्लंघन है।

    न्यायमूर्ति एस मुरलीधर और सी हरि शंकर की पीठ ने निजी मानसिक अस्पताल कॉसमॉस इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड बिहेविओरल साइंसेज (सीआईएमबीएस) जहाँ उस लड़की को रखा गया था और अल्मास एम्बुलेंस सर्विस को निर्देश दिया कि वह इस लड़की को क्रमशः तीन लाख और एक लाख रुपए का मुआवजा दें। एम्बुलेंस सर्विस अल्मास ने उस लड़की को ऐसी दवा दी थी जिसकी वजह से वह बेहोश हो गई थी और उसके बाद उसको अम्बुलेंस से वे उठाकर ले गए।

    मुआवजे की यह राशि इस लड़की के निजी खाते में चार सप्ताह के भीतर जमा करने होंगे।

    कोर्ट ने कहा है कि याचिकाकर्ता (संगीत के शिक्षक) के आवास से उस लड़की को 11 जून 2017 को उठाना और फिर 13 जून 2017 की सुबह तक उसको वहाँ रखना गैर कानूनी और असंवैधानिक था और उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।

    माँ-बाप से कहा गया है कि वे लड़की की पसंद और निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करें।

    कोर्ट का या फैसला तब आया है जब इस लड़की की 69 वर्षीय संगीत शिक्षक ने कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका दायर की।

    मामला क्या है

    यह 23 वर्षीय लड़की (Z) 18 साल की होने के बाद अपने संगीत शिक्षक और उसकी पत्नी के घर रह रही थी। इस लड़की के माँ-बाप ने 2014 में एक शिकायत दायर कर कहा कि उनके परिवार में मानसिक रोग का इतिहास रहा है और 2011 के बाद उनकी बेटी के व्यवहार में भारी परिवर्तन आया है। उन्होंने यह भी कहा कि उनकी बेटी को याचिकाकर्ताओं ने अपनी लालच में फंसा लिया है।

    लड़की से बात करने के बाद इस शिकायत को मजिस्ट्रेट ने अप्रैल 2015 में रद्द कर दिया। उसने आरोप लगाया था कि उसके माँ-बाप उसको परेशान करते हैं और उसने इस बारे में राष्ट्रीय महिला आयोग से भी संपर्क किया था। उसने कोर्ट में कहा कि वह बालिग़ है और उसको किसी भी तरह का मानसिक रोग नहीं है।

    लड़की के माँ-बाप ने 2016 में इस मामले को लेकर हाई कोर्ट पहुँचे और कोर्ट से उनको लड़की का अभिभावक नियुक्त करने की गुहार लगाई। जज ने मामले की सुनवाई की, लड़की की दिमागी हालत की एम्स में जांच कराई गई और डॉक्टरों ने कहा कि वह ठीक है।

    इस रिपोर्ट के बाद एकल जज ने याचिका रद्द कर दी।

    एक साल से भी कम समय के अंदर लड़की की माँ ने मालवीय नगर थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई कि संगीत का शिक्षक उनकी बेटी को फुसलाकर ले गया है।

    उसी दिन 5 बजे शाम को माँ-बाप और भाई संगीत शिक्षक के घर में जबरदस्ती घुसकर इस लड़की को दवा देने के बाद अम्बुलेंस में बिठाकर ले गए। लड़की के पिता ने बताया कि उन्होंने सीआईएमबीएस के डॉ। सुनील मित्तल के कहने पर ऐसा किया। इस लड़की को बाद में वहाँ के डॉक्टरों की सलाह और सुझाव पर इस मानसिक अस्पताल में एक दिन और एक रात के लिए रखा गया।

    इस पर कोर्ट ने कहा, “किसी रोगी की हालत कैसी है इसका निर्णय कोई डॉक्टर ही कर सकता है और यहाँ यह निर्णय डॉ. सुनील मित्तल को लेना था, किसी और को नहीं। वर्मान मामले में धारा 19(1) एमएचए के दो उद्देश्य थे - चूंकि लड़की मानसिक रूप से बीमार थी इसलिए वह अपनी स्थिति के बारे में कुछ भी खुद नहीं बता सकती थी कि उसे अस्पताल में भर्ती होना है और यह कि उसको अस्पताल में भर्ती करना उसके सर्वाधिक हित में है। इलाज के बारे में दूसरे डॉक्टरों की बात फोन पर सुनकर डॉ. मित्तल इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते थे, इसके बावजूद कि ये डॉक्टर योग्य डॉक्टर हैं।

    इस लड़की के संगीत शिक्षक ने लड़की को अगवा किए जाने की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज कराई थी जो कोई भी कार्रवाई करने में विफल रहे। इसके बाद उन्होंने हाई कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका दर्ज की जिसके बाद लड़की को कोर्ट में पेश किया गया और बाद में इस लड़की को फिर याचिकाकर्ता के पास भेज दिया।

    पीठ ने इस मामले में अपने फैसले में कई ऐसे मामलों का जिक्र किया जिसमें मौलिक अधिकारों की व्याख्या की गई है। इनमें न्यायमूर्ति (अवकाशप्राप्त) केएस पुत्तास्वामी बनाम भारत संघ, निजता पर कोर्ट का फैसला, हादिया का मामला, गियान देवी बनाम अधीक्षक, नारी निकेतन, दिल्ली मामले में आए फैसलों का उल्लेख किया गया।

    पीठ ने कहा, “लड़की के माँ-बाप ने स्थानीय पुलिस, अल्मास के स्टाफ, सीआईएमबीएस के कर्मचारी के साथ मिलकर जो कदम उठाया वह लड़की के जीवन, स्वतंत्रता और गिरमा के मौलिक अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन है जो उसको संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त है। उसके इन अधिकारों का उल्लंघन इसलिए हुआ क्योंकि उसने अपने पसंद के अधिकार पर अपना हक़ जमाया कि उसको किसके साथ रहना है। कोर्ट इसलिए लड़की के माँ-बाप की इस दलील को रद्द करता है कि उन्होंने अपनी बेटी के हित में यह कदम उठाया...”।

    पीठ को गहरा आघात तब लगा जब उसको पता चला कि सीआईएमबीएस के इंचार्ज डॉ. सुनील मित्तल ने दो दशक पहले एक महिला को बिना देखे या जांच किये ही उसको मानसिक अस्पताल में रखने का प्रमाण पत्र जारी कर दिया था। इस महिला को उसका पति परेशान करता था।

    कोर्ट ने इस बात पर भी गौर किया कि अल्मास का डॉ. इसरारुल हक़ एलोपैथिक डॉक्टर नहीं बल्कि आयुर्वेदिक डिग्रीधारी है। अल्मास का अम्बुलेंस हरियाणा में पंजीकृत था पर चूंकि उसे हरियाणा में चलाने की अनुमति नहीं है इसलिए वह इसे दिल्ली में चलाता है।


     
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