केरल सरकार के अध्यादेश पर रोक से उपजे साख, औचित्य तथा संवैधानिकता के प्रश्न!

LiveLaw News Network

16 April 2018 9:15 AM GMT

  • केरल सरकार के अध्यादेश पर रोक से उपजे साख, औचित्य तथा संवैधानिकता के प्रश्न!

    अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट ने केरल प्राइवेट कॉलेज (रेगुलेशन ऑफ़ एड्मिसन इन मेडिकल कॉलेज) अध्यादेश, 2017 पर स्थगन आदेश देकर इसके क्रियान्वयन पर रोक लगा दी है. सत्र 2016-17 में राज्य के कुछ प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों ने गैर कानूनी रूप से छात्रों का प्रवेश लिया था जिसे भारतीय आयुष परिषद् की प्रवेश अधिवीक्षण समिति ने निरस्त कर दिया था. केरल हाई कोर्ट ने भी इन प्रवेशों को कानून सम्मत नहीं माना था तथा अपील में सुप्रीम कोर्ट ने भी हाई कोर्ट के निर्णय पर मुहर लगा दी थी. लेकिन उच्चतर न्यायपालिका के स्पष्ट निर्णयों को दरकिनार करते हुए राज्य सरकार ने राज्यपाल के हस्ताक्षरों से उक्त अध्यादेश जारी कर दिया जिसको असंवैधानिक मानते हुए सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने रोक लगा दी है. ज्ञातव्य है कि केरल में इस समय भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सथासिवम राज्यपाल हैं. क़ानून से सरोकार रखने वाले क्षेत्रों में आश्चर्य मिश्रित प्रतिक्रिया है कि मुख्य न्यायाधीश रहे राज्यपाल ने ऐसे अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने से पूर्व विधिक स्थिति की पूरी जानकारी क्यों नहीं ली?

    सांविधानिक भटकाव की यह पहली घटना नहीं है. तमिलनाडु की राज्यपाल रही जस्टिस फातिमा बीवी को भी 2001 में जयललिता को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने के कारण विवाद हुआ था जिसकी परिणित अंततः उनके इस्तीफे से हुई थी. दरअसल अन्नाद्रमुक ने मई 2001 में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया था लेकिन योग्य नहीं होने के चलते जयललिता स्वयं विधानमंडल की सदस्य चुने जाने के अयोग्य थीं. इसके बावजूद राज्यपाल फातिमा बीवी ने उन्हें मुख्यमंत्री की शपथ दिला दी थी. इस नियुक्ति को सुप्रीमकोर्ट ने अवैध ठहराया था तथा राज्यपाल के इस कदम को संविधान के विपरीत करार दिया था. इन विवादों के चलते जस्टिस फातिमा बीवी को इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा था .

    उच्चतर न्यायपालिका के जजों को राज्यपाल जैसे कार्यपालिका के पदों पर नियुक्ति को लेकर आलोचना-प्रत्यालोचना होती रही है . कहा जाता है कि कम से कम सुप्रीमकोर्ट के रिटायर जजों को ऐसे पदों पर नियुक्ति लेने से परहेज करना चाहिए क्योंकि इन पदों पर कार्य करते हुए उन्हें तत्कालीन राज्य सरकार के निर्णयों को लागू करना पड़ता है जिसमें अध्यादेश जारी करना तथा/या मुख्यमंत्री की नियुक्ति में ऐसी शक्तियों का प्रयोग करना शामिल है और इनमें संवैधानिक रूप से अनौचित्यपूर्ण होने पर मीडिया तथा राजनीतिक विश्लेषकों की तीखी आलोचना का सामना करना पड़ता है.

    अनुच्छेद 124(7) के अंतर्गत ऐसा प्रावधान है कि कोई व्यक्ति, जो उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के पद पर रह चुका है, भारत के भीतर किसी न्यायालय में या किसी अधिकारी के समक्ष पैरवी या कार्य नहीं करेगा. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के भी स्थायी न्यायाधीश रहने के पश्चात कानूनी प्रैक्टिस करने पर रोक है. लेकिन इन न्यायाधीशों के संवैधानिक पद पर नियुक्ति पर कोई रोक नहीं है. हरगोविंद पन्त बनाम रघुकुल तिलक (1979) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि राज्यपाल का पद भारत सरकार के अधीन नहीं है. राज्यपाल का पद एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है जो न तो संघ सरकार के नियंत्रण में है और न उसके अधीन है.

    न्यायाधीशों के सेवानिवृत्ति के पश्चात किसी न्यायालय या अधिकारी के समक्ष पैरवी या कार्य करने पर प्रतिबन्ध के पीछे लोकनीति है. इसके पीछे तर्क यह है कि जो व्यक्ति उच्चतर न्यायपालिका का सदस्य रहा है, उसके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत क़ानून बन जाते हैं तथा अभिलेख न्यायालय होने के कारण इनके द्वारा दिए गए निर्णय वर्षों तक नज़ीर बने रहते हैं. अतः यदि वे किसी मोवक्किल के पक्ष में कोई उलट बहस करते हैं तो न्यायालय के समक्ष धर्म संकट उत्पन्न हो जाएगा.

    वैसा ही उलझाव उन स्थितियों में भी उत्पन्न होता है जब ये न्यायाधीश न्यायपालिका से इतर किसी पद पर नियुक्त होने की वजह से किसी निर्णय का हिस्सा बनते हैं. मुख्यमंत्री की नियुक्ति पर विवेकाधिकार पर बहुत सारे फैसले उपलब्ध हैं और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश रहे राज्यपाल से इस विवेकाधिकार के प्रयोग पर आम लोगो में संवैधानिक मर्यादा की रक्षा हेतु अतिरिक्त अपेक्षाएं होना स्वाभाविक हैं. एक ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाना जो उस पद पर नियुक्ति के लिए जरूरी योग्यता ही न रखता हो, सामान्य भूल नहीं मानी जा सकती है. इसी प्रकार ऐसे अध्यादेश पर हस्ताक्षर करना जो सुप्रीम कोर्ट के स्वयं के निर्णय को जानबूझ कर पलटता हो, एक आम नागरिक में न्यायालय के प्रति सम्मान को कम करेगा.

    भारतीय संविधान शक्ति के बंटवारे के सिद्धांत को विधायिका तथा कार्यपालिका के मध्य लागू करने में भले ही शिथिल हो लेकिन न्यायपालिका की स्वायत्तता तथा स्वतंत्रता के प्रति अतिसंवेदनशील है. न्यायाधीशों के निश्छल, निष्पक्ष तथा निर्विकार व्यक्तित्व के कारण ही उन्हें कार्यपालिका में कोई पद नहीं दिए जाते. कई बार जज लोग स्वयं भी विनयपूर्वक अस्वीकार कर देते हैं ताकि उन्हें असुविधाजनक स्थितियों का सामना न करना पड़े. वैसे भी क़ानून की अनभिज्ञता तो किसी को भी सुरक्षा नहीं देती, न्यायमूर्तियों से तो अतिरिक्त सतर्कता की दरकार होती है!

    स्वतंत्रता के बाद कई पूर्व न्यायाधीशों ने राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ा है लेकिन किसी भी सत्ताधारी राजनीतिक दल ने इनका समर्थन नहीं किया और इनका चुनाव लड़ना अंततः प्रतीकात्मक ही रहा. जस्टिस हिदायतुल्लाह को उपराष्ट्रपति पद पर उनकी नियुक्ति से ही संतोष करना पड़ा.  इसका कारण भी स्पष्ट है. राजनीतिक दल नहीं चाहते कि उस पद पर बैठा व्यक्ति उनसे सवाल जवाब करे. जस्टिस सथासिवम ने जब राज्यपाल का पद स्वीकार किया था तब कतिपय क्षेत्रों में प्रतिकूल प्रतिक्रिया हुई थी. उनके द्वारा जारी अध्यादेश पर रोक लगाने से सुप्रीम कोर्ट की साख तो बच गयी लेकिन राज्यपाल पद की ऐसी किरकिरी हुई है जो भविष्य में याद रखी जायेगी.

    (पूर्व विभागाध्यक्ष एवं अधिष्ठाताविधि संकायलखनऊ विश्वविद्यालय तथा बनस्थली विद्यापीठ)

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