लोया मामले की सुनवाई : चारों न्यायिक अधिकारियों को आवश्यक रूप से हलफनामा दायर करने को कहा जाए [लिखित सबमिशन पढ़ें]

LiveLaw News Network

20 Feb 2018 11:13 AM GMT

  • लोया मामले की सुनवाई : चारों न्यायिक अधिकारियों को आवश्यक रूप से हलफनामा दायर करने को कहा जाए [लिखित सबमिशन पढ़ें]

    सोमवार को सीबीआई के विशेष जज लोया की संदिग्ध हालातों में मौत पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई दोबारा शुरू हुई। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा, डीवाई चंद्रचूड़ और एएम खानविलकर की पीठ मामले की सुनवाई कर रही है। एडवोकेट मुकुल रोहतगी महाराष्ट्र सरकार की पैरवी कर कर रहे हैं। उन्होंने पिछली सुनवाई में इस मामले में दायर याचिकाओं के औचित्य पर सवाल उठाया था और अपनी दलील के माध्यम से यह बताने की कोशिश की थी कि क्यों ये निहित स्वार्थ से प्रेरित हैं।

    रोहतगी ने अपने बयान में सोमवार को कहा, “मेडीट्रिना अस्पताल में जज लोया को पुनर्जीवित करने की कोशिश की गई और बाद में उनको वहाँ ‘मृत लाया हुआ’ घोषित कर दिया गया। उनके शव के पोस्ट मॉर्टम के निर्देश दिए गए क्योंकि उनकी मौत उस अस्पताल में नहीं हुई थी। चार न्यायिक अधिकारियों ने अपने खुद के लेटरहेड्स पर पत्र लिखा और इनमें से एक जज ने तो खुद अपने हाथ से यह पत्र लिखा है, और इस बात की पुष्टि की है। ये सभी पत्र खुद ही लिखे गए और किसी जांच के बाद नहीं प्राप्त हुए हैं। हाई कोर्ट के जज भी उस दिन अस्पताल 7 बजे सुबह के बाद पहुंचे जिस दिन जज लोया की मौत हुई और उन्होंने भी उनके मौत की पुष्टि की है।”

    रोहतगी ने कहा, “कारवाँ पत्रिका में छपी रिपोर्ट झूठी और निराधार है। यह रिपोर्ट जज लोया की मौत के तीन साल बाद गत नवंबर में प्रकाशित हुई। और वह भी इसलिए छपी कि सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेष व्यक्ति (भाजपा नेता अमित शाह) को बरी करने के आदेश को दी गई चुनौती को खारिज कर दिया। यह एक जानबूझकर लिखा गया आलेख है”।

    इसके बाद उन्होंने दांडे हॉस्पिटल, नागपुर के मालिक का बयान पढ़कर सुनाया – “...जज लोया की जांच हुई ...ईसीजी किया गया...उनको एक ह्रदय रोग विशेषज्ञ को दिखाया गया...उन्होंने ईसीजी किया और वे चले गए...”

    सिताबर्दी थाने की मृत्यु रिपोर्ट के बारे में रोहतगी ने इसकी तारीख में गलती पर चर्चा करते कहा, “मूल रिपोर्ट में घटना तारीख 30 नवंबर 2014 रिकॉर्ड की गई है, पर 4 बजे सुबह को यह 1 दिसंबर 2014 हो गया। इसके नक़ल बयान में सही तारीख 1 दिसंबर 2014 लिखा गया है। इस पर डॉ. प्रशांत राठी का 8.30 बजे सुबह किया गया अंग्रेजी में हस्ताक्षर है। एक अन्य मृत्यु रिपोर्ट है जो कि थाना सदर का है क्योंकि रवि भवन इसी थाने के तहत आता है। इसमें फरयादी का नाम डॉ. प्रशांत बजरंग राठी लिखा है। घटनास्थल रवि भवन दर्ज है और समय एवं तारीख 4 बजे सुबह 1 दिसंबर 2014 दर्ज है, मृत्यु के बाद घटना का समय इसी दिन 6.15 बजे सुबह दर्ज किया गया है। सदर का नक़ल बयान 4 बजे सुबह 1 दिसंबर 2014 को रिकॉर्ड किया गया। सिर्फ फाइलों का स्थानांतरण सिताबर्दी से सदर हुआ और एक आवृत्ति हुई।

    न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने सहमति जताते हुए कहा, “आकस्मिक मौत के बारे में प्रथम रिपोर्ट सिताबर्दी में हुई। सदर स्थित पुलिसकर्मी ने वहाँ रिकॉर्ड की गई सोच्नाएं उसको दी।”

    रोहतगी ने बाद में सीआरपीसी की धारा 174 के तहत कानूनी जांच रिपोर्ट की चर्चा की और सिताबर्दी थाने के संबंधित पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट को पढ़ा, “डॉ. प्रशांत राठी ने मृतक के चेहरे को पहचाना...मृतक ने नीले रंग का जींस पहन रखा था और काला बेल्ट लगा रखा था...चोट लगने या प्रहार किए जाने का कोई निशान नहीं था...उनके गोपनीय अंग वैसे ही थे मेरे हिसाब से, मृत्यु का कारण हृदयाघात है...”

    इसके बाद उन्होंने नागपुर गवर्नमेंट कॉलेज के डिपार्टमेंट ऑफ़ फॉरेंसिक साइंस की राय का जिक्र किया जिसने मौत के कारण बताए थे।

    रोहतगी ने कहा, “डॉक्टर इस बात की पुष्टि करते हैं कि चोट का कोई निशान नहीं था”।

    याचिकाकर्ताओं के इस दावे के बारे में कि जज ब्रिजगोपाल लोया का नाम ‘बृज मोहन’ लिखा गया है, रोहतगी ने मेडीट्रिना अस्पताल की रिपोर्ट की ओर इशारा किया जो कि सिताबर्दी थाने को लिखा गया था : इसमें नाम लिखा गया है बृज मोहन। जज श्रीकांत कुलकर्णी ने लोया को अस्पताल में भर्ती कराया था। मेरे पास वह मूल फॉर्म है जो उन्होंने भरा था। उन्होंने नाम बृजमोहन लिखा और यही डॉक्टर को दिया गया।”

    पीठ ने उस रिपोर्ट को पढने का आग्रह किया। वरिष्ठ एडवोकेट दुष्यंत दवे, जो कि बॉम्बे लॉयर्स एसोसिएशन की पैरवी कर रहे हैं, ने इसको देखने की इच्छा जताई, पर रोहतगी ने उनको यह दिखाने से इनकार कर दिया। जब दवे ने इसे “खुद द्वारा ईजाद किया हुआ सबूत” बताया तो रोहतगी ने कहा कि इसका कोई महत्त्व नहीं है। वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने बीच में कहा, “क्या प्रासंगिक है, इसका निर्णय वह एकपक्षीय रूप से नहीं कर सकते। हमने पहले ही पुलिस डायरी देखने की मांग की है।”  मुख्य न्यायाधीश मिश्रा ने हस्तक्षेप किया और कहा, “एक बार जब कोई दस्तावेज कोर्ट में पेश कर दिया जाता है, तो उसको प्रतिपक्ष को दिखाना जरूरी होता है, बशर्ते कि यह विशेषाधिकार वाला संदेश न हो।”

    ईसीजी के विवाद के बारे में न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, “जज आर राठी ने कहा कि ईसीजी मशीन टूटा हुआ था।” “जज बरदे और डॉ. दांडे ने इस बात की पुष्टि की है कि दांडे अस्पताल में ईसीजी हुआ। जज राठी ने भी यह नहीं कहा है कि ईसीजी मशीन नहीं था; उन्होंने कहा कि ईसीजी मशीन को ठीक करने की कोशिश की गई। शायद इसके कुछ नोड्यूल्स ही जुड़े थे जिसने कुछ बातें रिकॉर्ड की...जज लोग मेडिकल की जानकारी के मामले में साधारण लोग जैसे होते हैं और शायद इस बारे में ज्यादा नहीं जानते”, रोहतगी ने कहा। उन्होंने आगे कहा, “यह कोई हत्या की अपील नहीं है। मैं इसे सिर्फ कोर्ट के विवेक के लिए दिखा रहा हूँ कि ये बातें हुईं।”

    इस पर इंदिरा जयसिंह ने कहा, “अगर जज राठी साधारण व्यक्ति हैं, तो जज बरदे भी हैं। जज बरदे ने तो कहा है कि जज लोया की ईसीजी हुई और जज राठी ने कहा कि ईसीजी मशीन को ठीक करने की कोशिश की गई पर वह ठीक नहीं हुई। यहाँ तक कि जज बरदे भी नहीं कह रहे हैं कि ईसीजी किया गया।”

    इस पर रोहतगी ने जज लोया के पिता और भाई के बयानों का जिक्र किया। उन्होंने पीठ का ध्यान जज लोया की पत्नी के बयान की ओर खींचा जिसमें उन्होंने कहा है कि जज लोया से उनकी अंतिम बार बात 30 नवंबर 2014 को 11.30 बजे रात में हुई, अगले दिन 5 बजे सुबह जज मोदक ने उन्हें फ़ोन किया और उसके बाद कई और जजों ने और फिर परिवार के सभी लोग जज लोया के गृहनगर लातूर के पास जाने पर सहमत हो गए।

    कारवाँ पत्रिका में लगाए गए आरोपों और आरएसएस कार्यकर्ता ईश्वर बहेटी की इसमें संलग्नता के बारे में रोहतगी ने कहा कि पुलिस ने इस बात की पुष्टि की है कि ईश्वर बहेटी नाम के तीन लोग लातूर में हैं जिनमें से एक जज लोया के रिश्तेदार हैं।

    और अंत में, महाराष्ट्र के खुफिया आयुक्त की रिपोर्ट पर भरोसा जताते हुए रोहतगी ने कहा, “कारवाँ के आलेख में कहा गया है कि जज लोया को दांडे अस्पताल ऑटो रिक्शा में लाया गया। पर रिपोर्ट कहता है कि उनको जज बरदे की कार में ले जाया गया और जज बरदे ने इसकी पुष्टि की है...आलेख में यह आरोप भी लगाया गया है कि जज लोया के शव को उनके पैतृक गाँव जब भेजा गया तो उसके साथ कोई नहीं गया था, जबकि नागपुर के दो स्थानीय मजिस्ट्रे उनके शव के साथ गए थे...आलेख में दावा किया गया है कि उनके शरीर पर खून के धब्बे थे पर पोस्ट मॉर्टम रिपोर्ट में ऐसा कुछ नहीं है।”

    रोहतगी ने कहा, “राज्य को न्यायिक अधिकारियों के बयानों या राज्य खुफिया विभाग द्वारा की गई जांच में कोई संदेह नहीं है। जज लोया की स्वाभाविक मौत हुई। इस बारे में कुछ भी संदिग्ध नहीं है।”

    यह बात कि सीआरपीसी की धारा 174 का पालन नहीं हुआ, सीआरपीसी की धारा 21 पर भरोसा करते हुए रोहतगी ने कहा “महाराष्ट्र में 10 आयुक्त हैं और 36 जिले हैं। एक आयुक्त के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र में कार्यपालक मजिस्ट्रेट एसीपी होता है जबकि एक जिला में, यह काम एसडीएम देखता है; पर इन दोनों में से कोई भी न्यायिक मजिस्ट्रेट नहीं है। वर्तमान मामले में इसकी कानूनी जांच रिपोर्ट एसीपी को सौंपी गई।

    उपरोक्त कथन के समर्थन में उन्होंने महाराष्ट्र सरकार बनाम मोहम्मद सलीम खान [(1991) 1 SCC 550] मामले का जिक्र किया। बॉम्बे पुलिस मैन्युअल (वॉल्यूम 3) पर भी इस बारे में उन्होंने भरोसा जताया।

    रोहतगी ने पीठ का ध्यान पोस्ट मॉर्टम के लिए उनको भर्ती किये जाने की और भी दिलाया जहाँ जज लोया का नाम ‘बृजमोहन’ लिखा गया; मेडीट्रिना अस्पताल के बिल, फरवरी 2015 की फोरेंसिक रिपोर्ट; और मामले की क्लोजर रिपोर्ट।

    अपनी दलील समाप्त करते हुए रोहतगी ने महाराष्ट्र सरकार की ओर से बॉम्बे लॉयर्स एसोसिएशन को सुप्रीम कोर्ट के नियम के आदेश 11 के तहत जवाब फाइल करने की अनुमति मांगी ताकि चार न्यायिक अधिकारियों से पूछताछ की जा सके।

    इस पर आपत्ति करते हुए दवे ने कहा, “अभी तक आवेदन पर मैंने अपनी दलील नहीं दी है। फिर इसका जवाब कैसे दाखिल किया जा सकता है?”

    बीसीआई द्वारा उनको जारी कारण बताओ नोटिस का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, “इस कोर्ट के समक्ष जो वर्तमान मामला है उसमें एक वैधानिक निकाय उनको पेशेवर बदसलूकी के लिए नोटिस जारी करता है। बीसीआई उनके (प्रतिवादियों) के अधीन है। वे हम पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं। कोई भी कोर्ट इसे न्याय के रास्ते में रुकावट पैदा करना मानेगा।”

    “मैंने अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ पीआईएल में कोर्ट की मदद की है...मैंने दोषी व्यक्तियों पर नार्को विश्लेषण और लाइ डिटेक्टर टेस्ट के बारे में कोर्ट की मदद की है...वर्मान मामले में कोई राजनीतिक निहितार्थ नहीं है जैसा कि आरोप लगाया जा रहा है...इस कोर्ट के चार जजों ने भी जोया मामले में संदेह व्यक्त किया है।”

    न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा ने कहा, “हम उक्त नोटिस पर गौर नहीं कर रहे हैं। आप अपनी दलील रखिये”। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़  ने कहा, “आप तथ्यों को हमारे सामने ला रहे हैं। जैसे कि सीआरपीसी की धारा 174 का पालन नहीं करने का आधार। हम काफी सावधानीपूर्वक आगे बढ़ रहे हैं ताकि हम इस निर्णय पर पहुँच सकें कि इस मामले में किसी तरह की जांच का निर्देश देने की जरूरत है कि नहीं...इस कोर्ट के बाहर बहुत कुछ कहा जा सकता है...पर बार के किसी सदस्य को इस कोर्ट के समक्ष अपनी दलील पेश करने से कोई नहीं रोक सकता।”

    दवे ने कहा, “यह मामला जिस तरह से आगे बढ़ रहा है वह संतोषजनक नहीं है। इस मामले को इस स्तर पर फेंका नहीं जा सकता...दलीलों को पूरा किए जाने की जरूरत है नहीं तो मैं कैसे इसका प्रतिवाद करूंगा? सुप्रीम कोर्ट का नियम यह कहता है कि सारे बयान हलफनामे की शक्ल में हों...एक रिपोर्ट को यूंही रिकॉर्ड में नहीं लिया जा सकता...मैं नहीं जानता कि कोर्ट राज्य को इस बारे में हलफनामा दायर करने को क्यों नहीं कह रहा है। कोर्ट इन दस्तावेजों को बार में किसी से भी साझा करने की अनुमति नहीं दे सकता। इन चारों न्यायिक अधिकारियों को हलफनामा दायर करने को जरूर कहना चाहिए। अगर वे इससे मना करते हैं, तो इसका अर्थ होगा कि समस्या है।”

    रोहतगी ने इस पर कहा, “इस तरह का कोई नियम नहीं है...कोई भी याचिका एकपक्षीय रूप से खारिज की जा सकती है या फिर दोनों पक्षों को सुनने के बाद, अगर इस तरह की कोई चेतावनी है या फिर कोर्ट द्वारा रिकार्ड्स को देखने के बाद...जयसिंह ने रवि भवन का रजिस्टर दिखाया; मैंने फोटोकॉपी दिखाया, मैं मूल प्रति भी दिखा सकता हूँ”।

    इसके बाद दवे ने 1991 के मोहन लाल शाम लाल सोनी के मामले का जिक्र किया : “साक्ष्य के बारे में जो क़ानून है उसका यह बुनियादी नियम है कि सर्वाधिक श्रेष्ठ उपलब्ध साक्ष्य कोर्ट के सामने पेश किया जाए ताकि किसी मामले से जुड़े किसी तथ्य को साबित किया जा सके...एक ऐसी स्थिति आ सकती है कि जब यह प्रश्न उठ सकता है कि किसी कोर्ट का पीठासीन पदाधिकारी सिर्फ एक अम्पायर है जो कि मामले को सुनने के बाद यह घोषणा करेगा कि कौन जीता और कौन हारा या क्या उसका अपना कोई कानूनी दायित्व नहीं है कि वह सच की इस खोज और न्याय देने की इस कार्रवाई में सक्रिय भाग ले?...”

    न्यायमूर्ति खानविलकर ने पूछा, “राज्य कैसे हलफनामा दायर कर सकता है? “तब तो राज्य को रिपोर्ट का उल्लेख नहीं करना चाहिए। 23 नम्वंबर 2017 को जज आर राठी ने पत्र लिखा जबकि इसी तारीख से कानूनी जांच शुरू हुई; अन्य पत्र 24 नवंबर 2017 को लिखे गए। ज़रा इनकी तिथि पर ध्यान दीजिए!, दवे ने कहा। मुख्य न्यायाधीश ने कहा, “यह एक आधार हो सकता है। पर हलफनामे से मामले में सुधार नहीं होता।”

    दवे ने 2008 के सिडको बनाम दोसु आर्देशिर भिवंडीवाला मामले का जिक्र किया, “हम यह मानने के लिए बाध्य हो रहे हैं कि इस मामले ने हमें उधेड़बुन में डाल दिया है। महाराष्ट्र सरकार और जिला अधिकारी ने जो रुख अपनाया है वह किसी कहानी से भी ज्यादा काल्पनिक है। यह समझना मुश्किल हो रहा है कि कोर्ट के समक्ष कार्रवाई में प्रभावी रूप से भाग लेने के  बजाय इन्होंने मूक दर्शक बने रहना क्यों चुना। इस बारे में कोई स्पष्टीकरण नहीं आया है कि उन्होंने रिट याचिका पर अपने जवाब हाई कोर्ट में दायर क्यों नहीं किये...यह राज्य का संवैधानिक दायित्व और कर्तव्य है कि वह कोर्ट के समक्ष सभी संबंधित और सच्चे तथ्य रखे ताकि कोर्ट अपने संवैधानिक दायित्वों का निर्वाह कर सके...”, उन्होंने इस मामले के फैसले से पढ़ते हुए कहा, “वर्तमान मामले में राज्य सरकार के शीर्ष अधिकारी के माध्यम से हलफनामा दायर करने के बजाय मौखिक बयान देने के लिए निचले अधिकारियों का प्रयोग किया...इस बीमारी का शीघ्र इलाज जरूरी है”।

    दवे ने कहा, “बॉम्बे लॉयर्स एसोसिएशन एक पंजीकृत निकाय है...मैं अपनी वास्तविकता साबित करने के लिए और क्या करूं?” मुख्य न्यायाधीश ने कहा, “वास्तविकता पर कोई प्रश्न नहीं उठाया जा रहा है”।

    तीन साल से अधिक समय से राज्य की अकर्मण्यता का जवाब देते हुए दवे ने कहा, “पिछले तीन सालों में राज्य ने क्या किया? निचली अदालत के एक सदस्य को सुरक्षा तक नहीं दी गई...अगर सही में उनकी मौत ह्रदयाघात से हुई, तो उनको उचित चिकित्सा नहीं उपलब्ध कराई गई...मौत के बाद उनके अंतिम संस्कार के लिए और उनके परिवार के लिए जो किया जाना चाहिए वह नहीं किया गया...उनकी मौत की कोई स्वतंत्र जांच नहीं कराई गई”।

    पीआइएल के बारे में क़ानून की चर्चा की और बढ़ते हुए दवे ने एसपी गुप्ता (1981) मामले का जिक्र किया : “यह एक स्थापित तथ्य है कि जहाँ कहीं किसी व्यक्ति या किसी निर्धारित वर्ग के व्यक्ति के साथ संवैधानिक या कानूनी अधिकारों के हनन से उनके साथ क़ानूनी गलती हुई है या कानूनी क्षति पहुंचाई गई है...और वह व्यक्ति किसी निर्दिष्ट कारण से कोर्ट की शरण में खुद नहीं आ सकता तो वह उपयुक्त निर्देश प्राप्त करने के लिए अनुच्छेद 226 के तहत हाई कोर्ट में आवेदन दे सकता है अगर उसके मौलिक अधिकारों का हनन हुआ है और इस कोर्ट के समक्ष न्यायिक सुधार के लिए अनुच्छेद 32 के अधीन आवेदन कर सकता है...”

    इस बिंदु पर पीठ की उस दिन की कार्यवाही समाप्त कर दी गई। मामले की अगली सुनवाई अब 5 मार्च को होगी।


     
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