पीड़ित के SC/ST होने की जानकारी होना ही आरोपी के खिलाफ SC/ST के मुकदमे के लिए पर्याप्त: SC [निर्णय पढ़ें]

LiveLaw News Network

11 Dec 2017 1:51 PM GMT

  • पीड़ित के SC/ST होने की जानकारी होना ही आरोपी के खिलाफ SC/ST के मुकदमे के लिए पर्याप्त: SC [निर्णय पढ़ें]

    सुप्रीम कोर्ट ने अशर्फी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले की सुनवाई में कहा है कि 2016 में  अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम में संशोधन के बाद आरोपी को सिर्फ ये जानकारी होने से ही कि पीडित समुदाय से संबंधित है,

    धारा 3(2)(v) के तहत उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जा सकती है।

    सुप्रीम कोर्ट रेप केस में ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट द्वारा दोषी करार जाने के खिलाफ एक शख्स की अपील पर सुनवाई कर रहा था। चूंकि पीडिता  अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति से संबंधित थी इसलिए उसे अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम की धारा 3(2)(v) के तहत जुर्माने के साथ आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।

    जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस आर बानुमति ने टिप्पणी करते हुए कहा कि  अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम की धारा 3(2)(v) में संशोधन से पहले ये कहा गया कि “ आधार पर कि वो शख्स अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का सदस्य है  “ और इससे साफ होता है कि आरोपी का उद्देश्य ये अपराध करने के पीछे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति को नीचा दिखाना होता है।

    कोर्ट ने उसे  अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम के आरोपों से बरी करते हुए कहा कि सबूत और तथ्यों से ये साबित नहीं होता कि अपीलकर्ता ने पीडिता से इस आधार पर रेप किया कि वो अनुसूचित जाति की है और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम की धारा 3(2)(v) ( संशोधन से पूर्व)  के तहत उसी वक्त कार्रवाई हो सकती है जब ये साबित हो कि रेप इसलिए किया गया क्योंकि पीडिता अनुसूचित जाति से संबंध रखती है।

    बेंच ने कहा कि 26.01.2016 ( संशोधन के प्रभावी होने की तारीख) के बाद IPC के तहत कोई अपराध, जिसमें दस साल या ज्यादा सजा का प्रावधान हो, और पीडित SC/ST समुदाय का हो तथा आरोपी को ये जानकारी हो कि पीडित SC/ST समुदाय से संबंधित है तो

    अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम की धारा 3(2)(v) के तहत अपराध बनता है।

    हालांकि कोर्ट ने IPC की धारा 376(2)(g) व अन्य के तहत दी गई सजा को बरकरार रखा।


     
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